पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नेतृत्वमें चलनेवाली भीड़ने प्रज्वलित की थीं। यह बताना भी बहुत जरूरी है कि ये लोग जानते थे कि उपद्रव होनेवाला है, वे जानते थे कि पुलिस सब-इंस्पेक्टर वहाँ मौजूद हैं, वे जानते थे कि जनता और उसके बीच पहले भी दो बार झगड़ा हो चुका है। क्या चौरीचौराकी दुःखद घटनाको न होने देना सर्वथा सरल काम नहीं था? मैं मानता हूँ कि किसीने हत्याकी कोई योजना नहीं बनाई थी, किन्तु स्वयंसेवकोंको, जो-कुछ वे कर रहे थे उसके परिणामका पूर्व अनुमान होना चाहिए था। बम्बईकी दुःखद घटनाके समय तो मैं खुद ही वहाँ मौजूद था। लोगोंको बहिष्कारके लिए तैयार करते समय उनसे सहनशील बने रहनेको कहना कार्यकर्त्तोंओंका कर्त्तव्य था, और इसी तरह मजदूर लोग जिन क्षेत्रोंमें जमा हो रहे थे, वहाँ स्वयंसेवकोंको तैनात करना भी उनका कर्त्तव्य था। लेकिन उन्होंने इन कर्त्तव्योंकी उपेक्षाकी। जब जनता लोगोंकी टोपियों और पगड़ियोंपर हाथ डालने लगी तब खुद मुझे इस उद्दण्डताको रोकने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए थी; किन्तु मैंने भी वैसा नहीं किया। अन्तमें, मद्रासकी बात लीजिए। मद्रासमें जो घटनाएँ हुई उनमें से एक भी ऐसी नहीं थी जिससे बचा नहीं जा सकता था। मद्रासमें जो-जो हुआ उसके लिए मैं कांग्रेस कमेटीको ही जिम्मेदार मानता हूँ। बम्बईके अनुभवकी याद ताजा थी। इसलिए यदि उन्हें पूरापूरा विश्वास नहीं था, तो वे हड़तालको टाल सकते थे। सच तो यह है कि इन सभी मामलोंमें किसी भी कार्यकर्त्ताने न तो अहिंसाके पूरे अभिप्रायको समझा और न उसके व्यवहारगत अर्थको ही। उन्हें जोश-खरोश पसन्द था, वे उसमें रस लेते थे, और इन बड़े-बड़े प्रदर्शनों के पीछे उनके दिलोंमें अनजाने ही यह भाव मौजद था कि इस तरह वे अपनी ताकतका प्रदर्शन कर रहे हैं; और यह चीज अहिंसासे बिलकुल उलटी पड़ती है। नीतिके रूपमें अहिंसापर अमल करने के लिए यह कतई जरूरी नहीं कि अमल करनेवाले लोग साधु-सन्त हों; पर यह तो जरूरी है ही कि वे ईमानदार हों और समझते हों कि लोग उनसे क्या आशा करते हैं।

तुम कहते हो कि लोग इसी भावनाके वशीभूत होकर काम कर रहे हैं कि स्वराज्य साल-भरमें मिलनेवाला है। तुम्हारे कथनमें काफी सचाई है; यदि लोग उत्साहके क्षणमें मन्द गतिसे काम करते हैं तो निश्चय ही स्वराज्य नजदीक नहीं आता। अस्थायी जोश-खरोशकी बात तो मैं समझ सकता है परन्त जोश ही जोशसे काम नहीं चलता; और न उसे महान् राष्ट्रीय गति-विधिका मुख्य अंग बनाना चाहिए। आखिरकार स्वराज्य कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि जादूकी छड़ी घुमाई और वह सामने आ गया। स्वराज्य तो एक ऋमिक विकास है, जिसमें हम दृढ़तासे तिल-तिल करके शक्ति हासिल करते चलते जायें तो एक ऐसा समय अवश्य आयेगा जब कि हमारी शक्ति इतनी बढ़ जायेगी कि जिन्होंने अनधिकारपूर्वक सत्ता हथिया रखी है उनपर भी उसका असर पड़ेगा। तथापि इस तरह इस प्रक्रियामें हम क्षण-क्षण स्वराज्यके निकट पहुँचते जाते हैं।

कन्याकुमारीके समीप स्थित किसी झोपड़ी में होनेवाली हिंसाका असर हिमालयकी तलहटीमें स्थित एक शान्त तहसीलपर पड़े बिना नहीं रह सकता; बशर्ते कि इन दोनों के बीच जीता-जागता सम्बन्ध हो; ऐसा होना ही चाहिए, यदि ये दोनों स्थान