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पत्र : कोण्डा वेंकटप्पैयाको

भारतके अविभाज्य अंग है और दोनों ही स्थानोंपर तुम्हारा स्वराज्यका झण्डा फहराता हो। साथ ही बारडोलीमें सामूहिक सविनय अवज्ञाके सम्बन्धमें विचार करते समय मैं किसी दूरस्थ कोने में बसी उस तहसीलमें घटनेवाली घटनाओंको कोई महत्त्व नहीं देता जहाँ कांग्रेसका असर न हो और जहाँ हिंसा कांग्रेस आन्दोलनके सिलसिले में न की गई होती। किन्तु गोरखपुर, बम्बई या मद्रासके बारेमें ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उनमें ऐसे सम्बन्धका अभाव है। इन सब स्थानों में एक राष्ट्रीय कार्यक्रमके सिलसिले में ही हिंसा भड़की। मलाबारकी जोरदार मिसाल[१] तुम्हारे सामने है। वहाँ मोपलाओंने संगठित, सुनियोजित ढंगसे हिंसा की, फिर भी अपने किसी कार्यक्रमपर हमने मलाबारका प्रभाव नहीं पड़ने दिया और न मैंने उस अरसेमें अपने विचार ही बदले। मैं आज भी मलाबार और गोरखपुरके अन्तरको समझता हूँ। मोपला खुद ही असहयोगकी भावनासे तनिक भी प्रभावित नहीं थे। अन्य भारतीय मुसलमानोंसे उनका साम्य नहीं है। मैं यह माननेको तैयार हूँ कि आन्दोलनका उनपर अप्रत्यक्ष रूपसे प्रभाव पड़ा था। मोपला विद्रोह इतने अलग किस्मका था कि भारतके अन्य हिस्सोंपर उसका असर नहीं पड़ा; जब कि गोरखपुरकी घटना एक नमूनेके रूपमें थी और इसलिए यदि हम उसके विरोधमें तत्परताके साथ कदम न उठाते तो भारतके अन्य भी आसानीसे उसका बरा असर फैल सकता था।

तुम कहते हो कि व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लेनेपर लोगोंकी मनःस्थिति जानने का कोई अवसर नहीं बच रहेगा। हम ऐसा नहीं चाहते, इसके विपरीत हम तो यह चाहते हैं कि लोग उद्योगों और रचनात्मक कार्योंमें अपने-आपको इतना खपा दें कि उनके मन में अशान्ति उत्पन्न होनेका लगातार बना रहनेवाला खतरा ही समाप्त हो जाये। जो आत्म-संयमकी आकांक्षा रखता है ऐसा व्यक्ति अपने आपको प्रलोभनोंमें फंसने के अवसरोंसे दूर रखता है। फिर भी यदि वे उनसे बचनेकी इच्छाके बावजूद, अपने-आप उपस्थित हो जाते हैं तो वह उनका सामना करने के लिए तैयार भी रहता है।

हमने निश्चय ही असहयोगका कोई भी काम मुलतवी नहीं किया है। तुम 'यंग इंडिया' में यह बात साफ तौरपर कही गई देखोगे। मेरी पक्की राय है कि हमारी सफलता इसी बातपर निर्भर है कि हम अपनेमें अनपम आत्म-संयम पैदा करें और सभा-निषेध सम्बन्धी सुने-सुनाये आदेशों तकका उल्लंघन न करें। हमें अपना आन्दोलन सभी प्रतिबन्धोंको मानते हुए और सविनय अवज्ञाके बिना भी चलाना सीखना चाहिए। यदि लोग जोश-खरोशके कार्यक्रम चाहते है, तो हमें उनको ऐसा कार्यक्रम नहीं देना चाहिए; भले ही हमें अप्रिय बननेका खतरा उठाना पड़े और हम बिलकुल इने-गिने ही क्यों न रह जायें। जनताको खुश रखनेकी दृष्टिसे कोई अव्यवस्थित आन्दोलन चलानेकी अपेक्षा देशके कोने-कोने में बिखरे हुए केवल दो-चार सौ गिने-चुने कार्यकर्त्ताओं द्वारा कार्यक्रमपर दृढ़तापूर्वक अमल होते रहनेसे कहीं अधिक स्थायी प्रभाव पैदा होगा। इसलिए मैं चाहूँगा कि तुम स्वयं ही हृदय-मन्थन करो और सत्यको खोज करो।

  1. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ४८-५०।