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भाषण : जुहूमें
त्रुटि नजर आती हो तो उसका कारण यही हो सकता है कि कई बार इन लड़कोंसे गफलत हो जाती है। परन्तु आप समझ ही सकते हैं कि यदि मैं गन्दगी होने दूँ तो यहाँ जो प्राकृतिक सौन्दर्य है उसका सारा आनन्द नष्ट हो जाये। और आप यह भी समझ लें कि गन्दगी दूर करनेके साथ स्वराज्यका कितना निकटका और गहरा सम्बन्ध है। आप मान लें कि हमें स्वराज्य मिल गया, किन्तु हम उसके बाद भी प्रमादी ही बने रहें और अपने आरोग्यके विषयमें लापरवाह रहें तो अंग्रेज हमें यहाँसे फिर ठोकर मारकर निकाल देंगे, इसमें कोई शक नहीं है। और इसके साथ ही भंगियों और चमारोंका भी सवाल आता है। यदि हम भंगियों और चमारोंको दुरदुराते रहेंगे और अछूत समझते रहेंगे तो हम अंग्रेजोंसे किस मुंहसे समानताकी माँग कर सकेंगे? यह जरूरी है कि हम समानताकी बात करनेसे पहले इस बातको समझ लें।
अब इस सम्बन्धमें मैं धर्मकी बात आपके सामने क्या करूँ? मैं तो यह समझता हूँ कि हमारे धर्ममें जो कुछ लिखा गया है, याज्ञवल्क्य आदि मुनियोंके जो कुछ इक्के-दुक्के वचन इधर-उधर मिलते हैं वे सभी अमर और स्थायी नहीं हैं। वह जमाना और था, आज जमाना दूसरा है। हम द्रौपदीको एक अलौकिक स्त्री मानते हैं, सुबह उठकर उसका नाम लेते हैं और पाँचों पाण्डवोंको पूज्य मानते हैं। परन्तु इससे क्या आज हम द्रौपदीकी तरह पाँच पति करनेवाली स्त्रीको सती मानेंगे? हम जो उनकी पूजा करते हैं, वह उनके अच्छे कामोंके कारण। हमें गुणग्राहक होना चाहिए। उनके कितने ही गुण अलौकिक थे; इसलिए हमने उनकी स्मृतिको कायम रखा है। यह तो 'महाभारत' की बात हुई। 'रामायण' से बढ़कर प्रिय पुस्तक मेरी दृष्टिमें दूसरी कोई नहीं। फिर भी तुलसीदासने जो कितनी ही धर्म-शास्त्रकी बातें लिखी हैं क्या वे सब प्रामाण्य हैं? 'मनुस्मृति' तो बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ है न? पर उसमें मांसाहारकी स्पष्ट आज्ञा है। इससे क्या आप मांस खायेंगे? आप ऐसी बातें सुनकर चौंकते हैं। कोई मांस खाता होगा तो लुक-छिपकर खाता होगा। यह दूसरी बात है। परन्तु 'मनुस्मृति' में लुके-छिपे नहीं, सरेआम मांस खानेकी आज्ञा दी गई है। फिर भी हम उसे त्याज्य मानते हैं। तब कलियुग में जिस चीजकी मनाही है, क्या सत्ययुगमें उसकी अनुमति रही होगी? स्वर्णयुगमें अभक्ष्य भक्षण किया जा सकता है, परन्तु इस कलियुगमें नहीं, क्या यह बात बेतुकी नहीं मालूम होती? किन्तु सत्य यह है कि धर्मको किस दृष्टिसे देखना चाहिए, मुख्य बात यही है। इस बारेमें दो बातें ध्यानमें रखनी हैं : एक यह कि हम धर्मका विचार बुद्धिसे नहीं, हृदयसे करें और दूसरी यह कि हम धर्मके नामपर अधर्म न फैलायें। आप यह बात समझ लें कि 'गीता' का अनर्थ हो सकता है। भीमने दुर्योधनपर गदासे प्रहार किया—इसलिए यदि कोई यह कहने लगे कि भाई-भतीजे एक-दूसरेको शत्रु समझकर कत्ल कर सकते हैं, तो मैं कहूँगा कि वह 'गीता' पढ़ना नहीं जानता। यह तो केवल हृदयका विषय है। मेरे धर्मका आधार बुद्धि नहीं, केवल हृदय है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप अपने हृदयोंको टटोलें।
[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३०-३-१९२