पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/४०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

२५४. 'यंग इंडिया' के नये और पुराने पाठकोंसे

'यंग इंडिया' का सम्पादन-भार फिरसे हाथमें लेते हुए मुझे बड़ा संकोच हो रहा है। कह नहीं सकता कि अपने स्वास्थ्यको देखते हुए मैं पत्रके सम्पादनकी शक्ति अब भी जुटा पाऊँगा या नहीं। लेकिन आगेकी क्या जानूँ। मुझे यरवदा जेलसे बाहर लानेमें ईश्वरका कोई-न-कोई उद्देश्य है। इस बातका आभास मुझे मिल रहा है और मैं 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' का सम्पादन-भार पुनः ग्रहण करनेमें इसी 'ज्योति' का सहारा लेते हुए बढूँगा।

मेरे पास कोई नया पैगाम नहीं है। मैंने तो स्वराज्य-संसदके हुक्मसे ही रिहा होकर स्वतन्त्र भारतकी यथाशक्ति सेवा करनेकी आशा रखी थी, परन्तु ईश्वरको वह मंजूर न था।

अभी हमें स्वतन्त्रता प्राप्त करनी बाकी है। मेरे पास कोई नया कार्यक्रम भी नहीं है। पुराने कार्यक्रममें मेरा विश्वास अधिक नहीं तो उतना ही दृढ़ बना हुआ है, जितना पहले था। बल्कि मैं तो मानता हूँ कि अपनी योजना और साधनोंके सम्बन्धमें मनुष्य के विश्वासकी सच्ची परीक्षा तभी होती है जब क्षितिजपर बादलोंकी घटा ज्यादासे ज्यादा घनी दिखाई दे।

यद्यपि जहाँतक मेरी दृष्टि पहुँचती है, कोई नई रीति या नीति 'इंग यंडिया' के पृष्ठोंमें नहीं मिलेगी, फिर भी उसके पृष्ठोंमें बासी सामग्री नहीं रहेगी। 'यंग इंडिया' में बासीपन तभी आ सकता है जब सत्य बासी हो जाये। मैं तो ईश्वरके प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, सत्य ही ईश्वर है। मेरी दृष्टिसे तो ईश्वरको पहचाननेका एक अचूक साधन अहिंसा अर्थात् प्रेम है। मैं भारतकी आजादी के लिए जी रहा हूँ और उसीके लिए मरूँगा। क्योंकि यह सत्यका ही अंग है। स्वतन्त्र भारत ही उस सच्चे ईश्वरकी पूजा करनेके योग्य हो सकता है। मैं भारतकी आजादी के लिए प्रयत्न क्यों कर रहा हूँ? इसलिए कि मेरा स्वदेशी धर्म मुझे सिखाता है कि इस देशमें मेरा जन्म हुआ है। इस देशकी संस्कृति मुझे विरासतमें मिली है। इसलिए मैं अपनी माताकी सेवा करनेका ही अधिकसे अधिक पात्र हूँ और मेरी सेवापर पहला हक इस जन्मभूमिका है। परन्तु मेरी स्वदेश-भक्ति मुझे दूसरे देशकी सेवासे विमुख नहीं करती। इसमें दूसरे देशको हानि पहुँचानेकी तो कोई बात ही नहीं, बल्कि उसमें सभीके सच्चे लाभके लिए जगह है। भारतकी स्वतन्त्रताका जो रूप मेरे सामने है वह संसारके लिए संकट-रूप हो ही नहीं सकता।

परन्तु वह संकट-रूप न बन सके, इसके लिए स्वराज्य प्राप्त करनेका साधन शुद्ध अहिंसात्मक होना जरूरी है। अतः यदि भारत हिंसात्मक साधनोंको ग्रहण करेगा तो भारतकी स्वतन्त्रतामें मेरी दिलचस्पी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि उस साधनका फल स्वतन्त्रता न होगी, बल्कि स्वतन्त्रताके आवरण में दासता होगी। और हम अबतक जो आजादी हासिल नहीं कर सके हैं इसका कारण यही है कि हम विचार, उच्चार