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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और आचारमें अहिंसानिष्ठ नहीं रहे। हाँ, यह बात सच है कि अहिंसाको हमने नीति के रूपमें ग्रहण किया है, क्योंकि हमारा विश्वास है कि भारतको दूसरे किसी साधनसे स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती। परन्तु हमारी नीति पाखण्डमय नहीं होनी चाहिए। हमारे मनमें अहिंसाके आवरण में हिंसा न हो। जबतक हम एक साध्यके लिए एक नियत कालतक अहिंसानिष्ठ होनेका दावा करते हैं तबतक हमारे विचार और उच्चार उस साध्यके लिए उस घड़ीतक आचारके अनुरूप अवश्य होने चाहिए। एक ईमानदार जेलर फाँसीकी सजा पाये हुए कैदीसे ऐसा ही व्यवहार करता है। वह अपनी जानको जोखिम में डालकर भी फाँसीके दिनतक उसकी जानकी हिफाजत करता है। वह उसकी जानकी हिफाजतका ही विचार करता है और उसीकी बात करता है; अतः वह, जहाँतक उस व्यक्ति और उस समयसे सम्बन्ध है, विचार, उच्चार और आचारमें अहिंसानिष्ठ है।

हमने तो यह प्रतिज्ञा की है कि हम आपसमें तथा अपने विरोधियोंके प्रति, चाहे वे सरकारी कर्मचारी हों अथवा सहयोगी, अहिंसानिष्ठ रहेंगे। हमें तो उनके हृदयको द्रवित करना और उनकी प्रकृतिके श्रेष्ठ तत्त्वोंको जाग्रत करना है। हमें अपना मतलब साधने के लिए उनके दिलोंमें बैठे हुए भयका लाभ नहीं उठाना चाहिए। परन्तु जानमें अथवा अनजानमें हममें से कितने ही लोगोंने—खासकर वक्ताओं और लेखकोंने—अपनी इस प्रतिज्ञाका पालन नहीं किया। हमने अपने विरोधियोंके प्रति असहिष्णुताका परिचय दिया है। हमारे देश-भाई हमको अविश्वासकी दृष्टिसे देखते हैं। उन्हें हमारी अहिंसापर विश्वास ही नहीं होता। कितनी ही जगह हिन्दुओं और मुसलमानोंने अहिंसाका नहीं बल्कि हिंसाका पदार्थपाठ पढ़ाया है। यही नहीं "परिवर्तनवादी" और "अपरिवर्तनवादी" लोगोंने भी एक दूसरेपर कीचड़ उछाली है। हरएकने सत्यका ठेकेदार होने का दावा किया है और अज्ञानसे अपने आपको ही निश्चित रूपसे ठीक मानकर एकने दूसरेको लाचारीमें की गई गलतियोंपर खरी-खोटी सुनाई है।

अतः सार्वजनिक प्रश्नोंकी चर्चा करते हुए 'यंग इंडिया' के पृष्ठों में अहिंसाका उपयोग और उसकी आवश्यकताको ही समझाया जायेगा। इतना हुआ 'यंग इंडिया' की नियन्त्रण सम्बन्धी नीतिके बारेमें।

अब कुछ उसके व्यावसायिक पक्षके सम्बन्धमें। जब मैंने श्री शंकरलाल बैंकर और अन्य मित्रोंके कहनेसे 'यंग इंडिया' के सम्पादनका काम अपने हाथमें लिया था तब मैंने जनतासे यह कहा था कि यह पत्र घाटा उठाकर चलाया जा रहा है और यदि यह घाटा जारी रहा तो मुझे इस पत्रको बन्द कर देना पड़ेगा। कुछ पाठकोंको मेरी इस बातका स्मरण होगा। पत्रोंको अनिश्चित समयतक घाटा उठाकर अथवा विज्ञापनसे घाटेको पूरा करके निकालनेमें मेरा विश्वास नहीं है। यदि किसी पत्रकी आवश्यकता अनुभव की जाती है तो उसका खर्च उसके प्रकाशनसे निकलना चाहिए। ग्राहकोंकी सूची सप्ताह प्रति सप्ताह बढ़ती गई और पत्रसे लाभ होने लगा। किन्तु पाठकों को विदित होगा कि पिछले दो सालोंमें ग्राहक संख्या २१,५०० से घटकर ३००० रह गई है और अब पत्र घाटेमें चल रहा है। सौभाग्यसे यह घाटा 'नवजीवन' से पूरा हो जाता है। किन्तु यह तरीका भी गलत है। 'यंग इंडिया' या तो अपने पैरों-