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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चरखोंपर अखण्ड कताई हुई। यदि वे सभी लोग जो सूत कात सकते हैं इन भले लड़कोंके आदर्शका अनुकरण करें तो हमारी खादीकी समस्या बहुत शीघ्र हल हो जायेगी; और चूँकि मैं मानता हूँ कि अगर सभी लोग चरखेको अपना लें तो उसमें हमें स्वराज्य दिलानेकी शक्ति है, इसलिए मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि धारवाड़की राष्ट्रीय शाला और चिंचवड़की उक्त संस्थाके लड़कोंने जैसी लगन दिखाई है हम वैसी लगनके बलपर स्वराज्यकी दिशामें बहुत आगे बढ़ जायेंगे। और चूँकि इस तरह की कताई में मजदूरीका सवाल नहीं उठता अतः या तो खादीके दाम घटाये जा सकेंगे या उन लोगोंको जो अपनी रोजी चलाने अथवा अपनी आयमें कुछ वृद्धि करनेके लिए सूत कातते हैं, ज्यादा मजदूरी दी जा सकेगी।

श्री मजलीके साथ जेलवालोंका व्यवहार

चूँकि मैं भी बीमार हूँ मैंने बेलगांववासी श्री मजलीको दिलासा देते हुए एक छोटासा पत्र[१] लिखा था। पाठक जानते ही हैं कि श्री मजली कुछ ज्यादा बीमार हो जाने के कारण जेलसे छोड़े गये थे। मेरे पत्रके उत्तरमें वे लिखते हैं:

आपके हाथका लिखा पत्र पाकर पहले तो मुझे अतीव हर्ष हुआ; परन्तु तुरन्त ही वह हर्ष उतनी ही कृतज्ञतामें बदल गया। बदस्तूर कल भी मुझे बुखार आया और पूरे सोलह घंटेतक रहा। मुझे हर तीसरे दिन बुखार आता है। लेकिन जितनी देर बुखार रहा, आपकी सलाह मेरे मनमें बराबर बनी रही और में अन्तमें चुपचाप पड़े रहने में सफल हो सका। मेरा चित्त अब बिलकुल शान्त है लेकिन तिजारीके इस नये रोगके कारण मेरी शरीर शक्ति फिर घटती जा रही है।
अखबारोंमें मैंने अपने साथ जेलमें किये गये व्यवहारके विषयमें धारा सभाके सवाल-जवाब पढ़े। वहाँ जो तीन बातें बताई गई हैं उनमें से दो गलत हैं। सरकारका यह कहना सही नहीं है कि मुझे सूत कातनेका काम दिया गया था, बल्कि (प्रतिदिन १ पौण्ड) सूत बटनेका काम दिया गया था। दूसरी बात यह है कि उन १५ मिनटको छोड़कर जब मुझे घूमनेके लिए निकाला जाता था, चौबीसों घंटे तनहाईकी कोठरीमें बन्द रखा जाता था। सरकार कहती है कि जब मैं जेल गया तब भी बीमार ही था; परन्तु फिर भी मुझे भात तक नहीं दिया गया, बल्कि ज्वारकी रोटी दी गई, जो मुझे हजम नहीं हो पाती थी। में यह बात आपपर ही छोड़ता हूँ कि आप इसे प्रकाशित करें या न करें क्योंकि में अपनेको किसी लायक नहीं मानता।

श्री मजली एक अच्छे कार्यकर्त्ता हैं। पाठकोंको और मुझे आशा है कि वे शीघ्र सर्वथा रोगमुक्त और काम करने योग्य हो जायेंगे। अब रही उस खण्डनकी बात जो उन्होंने भेजा है। कामकी हदतक कातने या सूत बटनेमें नावाकिफ पाठकोंको शायद

  1. देखिए "पत्र : डी॰ आर॰ मजलीको", २३-३-१९२४।