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२५६. मेरा जीवन-कार्य

कुछ दिन पहले पण्डित घसीटाराम, सभापति अखिल भारतीय सब असिस्टेन्ट सर्जन्स एसोसिएशन, पंजाब प्रान्त, अमृतसर, ने इस पत्र के सम्पादक के पतेपर मेरे नाम एक खुली चिट्ठी भेजी थी। यह चिट्ठी प्रशंसात्मक वचनों और मंगलकामना सम्बन्धी वाक्योंको निकालकर तथा व्याकरण सम्बन्धी स्पष्ट भूलोंको सुधारकर यहाँ दी जा रही है :

मैं एक ब्राह्मण हूँ, डाक्टर हूँ और आप ही की तरह बूढ़ा हूँ। अतः इन तीन हैसियतोंसे यदि मैं आपको कुछ सलाह दूँ तो बेजा न होगा। उसमें यदि आपको कोई बात अक्लकी और सच्ची मालूम हो और यदि वह आपके दिल और दिमागको जँचे तो आप कृपा करके उसे हृदयंगम कर लें। आपने बहुत दुनिया देखी है और उसके बारेमें पढ़ा भी बहुत है और इसलिए आपको उसका अद्भुत अनुभव भी प्राप्त है। परन्तु इस मृत्युलोक में अबतक कोई जीते जी अपने जीवन-कार्यको पूरा नहीं कर पाया है। बुद्धको ही लीजिए। उनके नीति और सदाचार-सम्बन्धी विचार बड़े ही ऊँचे थे, पर फिर भी वे सारे हिन्दुस्तानको बौद्धधर्मी न बना सके।
शंकराचार्यकी बुद्धिशक्ति अगाध थी। पर वे भी सारे भारतको वेदान्ती न बना सके। ईसा भी, इतनी गहरी आध्यात्मिकताके रहते हुए, पूरी यहूदी कौमको ईसाई मतावलम्बी न बना सके। सो में नहीं समझता, और कदापि यह माननेको तैयार नहीं हूँ कि आप भी अपना काम पूरा कर सकेंगे। इन तमाम ऐतिहासिक घटनाओंके रहते हुए भी, यदि आप यह मानते हों कि आप अपने जीवनमें कृतकार्य हो सकेंगे तो मेरा निवेदन है कि यह केवल स्वप्न है।
यह दुनिया संकटों, विपत्तियों और दुःखोंकी लीला भूमि है। मनुष्य इसमें जितना आसक्त होता है, उतना ही अधिक बेचैन होता है और फिर अपनी मानसिक और आत्मिक शान्तिको खो देता है। इसीलिए प्राचीन कालके महात्मागण अपने-आपको सांसारिक प्रपंचों और चिन्ताओंसे पृथक रखते थे और पूर्ण शान्ति तथा चित्तकी समता प्राप्त करनेका प्रयत्न करते थे जिससे उन्हें चिरंतन सुख-शान्ति और आनन्दकी उपलब्धि होती थी।
आपके जेल जीवनने आपके जीवन को बहुत-कुछ बदल दिया है और इस बीमारीने आपको बहुत क्षीण कर दिया है। अतः अब आपके लिए यही उचित है। कि आप शान्तिमय जीवन यापन करें और कहीं किसी एकान्त गुफामें बैठकर ईश्वरके ध्यान और आत्मानुभवमें अपने जीवनके शेष दिन शान्तिपूर्वक बितायें;