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मेरा जीवन-कार्य
क्योंकि आपकी तन्दुरुस्ती इस लायक नहीं है कि अब आप इन दुनियावी झगड़े और झंझटोंके भारको वहन कर सकें। यहाँ इस बातका जिक्र करना बेमौके न होगा कि अब आपको अंग्रेज हाकिमोंकी सद्भावना, दया और हमदर्दीका पूरा यकीन हो चुका है। उन्हीं अंग्रेजी दवाओं और चीर-फाड़के तरीकोंने आपको मौतके भीषण जबड़ेसे बचाया है, जिनकी आप बार-बार भर्त्सना करते रहे हैं। अंग्रेज हाकिमोंने आपको संकट और आवश्यकताके समय सहायता दी है।
मित्र वही है जो विपत्तिमें काम आये। अब आपका काम है कि आप अपने मित्र भावका परिचय दें और अपने जीवनदान और कारावाससे छुटकारे-पर अंग्रेजी-राज्यके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करनेके लिए उसके सच्चे मित्र बन जायें। यदि आप किसी वजहसे अपने वचन और कर्मके द्वारा ऐसा न कर सकें तो आपसे प्रार्थना है कि आप कमसे कम राजनैतिक हलचलोंके अखाड़े में न उतरें; यदि फिर भी आपकी बेचैन आत्मा आपको कहीं शान्तिके साथ न बैठने दे तो आप इस ऋषि-मुनियों और साधुओंको भूमिमें अपने हिन्दुस्तानी भाइयोंकी आत्मोन्नतिका काम अपने हाथमें लें और उन्हें आत्म-साक्षात्कारका पाठ पढ़ायें। ऐसा करनेसे आप ऐहिक राज्यके बदले स्वर्गीय राज्य प्राप्त कर सकेंगे।

मेरी राय में लेखकने यह पत्र बहुत ही सच्चे भावसे लिखा है और यदि किसी दूसरे कारणसे नहीं तो केवल इसी कारण उसका उत्तर देना जरूरी है। पर इससे मुझे अपने जीवन-कार्य के सम्बन्ध में कुछ भ्रमोंका निराकरण करनेका भी मौका मिला है।

सबसे पहले मैं अपने दवा-दारू सम्बन्धी विचारोंके बारेमें दी गई सलाहको ही लेता हूँ। मेरी 'हिन्द स्वराज्य'[१] पुस्तक इस समय मेरे पास नहीं है। पर मुझे जो कुछ याद है उसके आधारपर मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि मेरे उन विचारोंमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। यदि वह पुस्तक मैंने अंग्रेजीमें और अंग्रेजी पाठकोंके लिए लिखी होती तो मैं उसमें अपने विचारोंको इस ढंगसे प्रस्तुत करता कि वे अंग्रेजोंको अधिक अनुकूल जँचते। मूल पुस्तक गुजराती भाषामें 'इंडियन ओपिनियन' के नेटाल निवासी गुजराती पाठकोंके लिए लिखी गई थी। फिर उसमें जो कुछ लिखा गया है वह आदर्श स्थितिसे सम्बन्धित है। किसी साधनकी निन्दाको व्यक्तिकी निन्दा मानना भूल है। लोग प्रायः यह भूल करते हैं। दवा अक्सर रोगीकी आत्माको मूढ़ बना देती है। इसलिए हम उसे बुरा समझ सकते हैं। परन्तु इस कारण यह जरूरी नहीं हो जाता कि हम दवा देनेवालोंको भी बुरा समझें। जब मैंने उक्त पुस्तक लिखी थी तब मेरी मंत्री बड़े-बड़े डाक्टरोंसे थी और जरूरत के वक्त मैं उनकी

  1. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ६-६९।