पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/४१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मदद लेनेमें बिलकुल नहीं हिचकिचाता था। यह बात लेखककी रायमें मेरे औषधोपचार सम्बन्धी विचारोंके खिलाफ है। कितने ही मित्रोंने मुझसे साफ-साफ ऐसा ही कहा है। मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। अर्थात् यह स्वीकार करता हूँ कि मैं पूर्ण पुरुष नहीं हूँ। दुर्भाग्यसे अभी मुझमें बहुत कमियाँ हैं। मैं तो पूर्णताका विनीत आकांक्षी मात्र हूँ। मैं उसका रास्ता भी जानता हूँ। परन्तु रास्ता जाननेका अर्थ यह नहीं है कि मैं आखिरी मुकामपर पहुँच गया हूँ। यदि मैं पूर्ण पुरुष होता, यदि मैंने अपने तमाम मनोविकारों और विचारोंपर पूरा आधिपत्य कर लिया होता तो मेरा शरीर पूर्णताको पहुँच गया होता। मैं कबूल करता हूँ कि अभी मुझे अपने विचारोंको काबू में रखने के लिए प्रतिदिन बहुत मानसिक शक्ति खर्च करनी पड़ती है। यदि कभी मैं इसमें सफल हो सका तो जरा सोचिए, शक्तिका कितना बड़ा मुक्त स्रोत मुझे सेवा के लिए मिल जायेगा। मैं मानता हूँ कि मुझे अपेन्डिसाइटिसकी बीमारी होना मेरी विचारशक्ति अर्थात् मनकी दुर्बलताका फल है और उसी प्रकार ऑपरेशन करवानेके लिए तैयार हो जाना तो मनकी और भी अधिक दुर्बलता है। यदि मेरे अन्दर शरीरकी ममता बिलकुल न होती तो मैंने अपनेको होनहारके सिपुर्द कर दिया होता। लेकिन मैं तो अपने इसी चोलेमें रहना चाहता था। पूर्ण विरक्ति किसी यान्त्रिक क्रिया से प्राप्त नहीं होती, बल्कि धीरज, परिश्रम और ईश्वराराधनाके द्वारा उस स्थिति-तक पहुँचना पड़ता है। रही कृतज्ञताकी बात। कर्नल मैडॉक और उनके साथियोंने मेरे साथ जो अत्यन्त कृपापूर्ण व्यवहार किया है उसके लिए मैं उनके प्रति कई बार सार्वजनिक रूपसे कृतज्ञता प्रकट कर चुका हूँ। परन्तु कर्नल मैडॉकके मेरे प्रति किये गये इस कृपापूर्ण व्यवहार और उस शासन-प्रणालीका, जिसको मैं बुरा बताता हूँ, कोई सम्बन्ध नहीं है। उलटे यदि इस खयालसे कि कर्नल मैडॉक एक प्रवीण सर्जन हैं और उन्होंने सर्जनकी हैसियतसे अपने कर्त्तव्यका पालन किया है, मैं डायरशाही सम्बन्धी अपने विचारोंको बदलूँ तो स्वयं कर्नल मैडॉक ही मुझे नीची निगाह से देखेंगे। और न मुझे इस बात के लिए सरकारको धन्यवाद देनेकी जरूरत मालूम होती है कि उसने मेरे इलाज के लिए अच्छेसे अच्छे सर्जनोंकी तजवीज की या मुझे मीयाद पूरी होनेसे पहले जेलसे छोड़ दिया। उसके लिए पहला काम अर्थात् हरएक कैदीके इलाजका इन्तजाम करना तो लाजिमी ही था और उसके दूसरे कामसे में उलझनमें पड़ गया हूँ। मैं जेलमें चंगा था या रोगी, पर वहाँ मुझे अपना रास्ता तो मालूम था। अब जेलकी चहारदिवारीके बाहर होनेपर मेरा स्वास्थ्य तो धीरे-धीरे सुधर रहा है, पर निश्चयपूर्वक यह मेरी समझमें नहीं आता कि अपना कार्यक्रम में कैसे स्थिर करूँ।

अब पत्रके मुख्य विषयपर आता हूँ। लेखकके मनकी भ्रान्तिका कारण यह है कि उसने उल्लिखित पैगम्बरोंके कार्यको गलत समझा है और उनके साथ मेरी तुलना करके (मेरे हकमें) अशोभन काम किया है। बुद्धका काम था निर्वाण प्राप्त करना। वे अपने इस कामको पूरा नहीं कर पाये, यह मैं नहीं जानता। लोककथा तो यही कहती है कि उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया था। दूसरोंको अपने धर्म में मिलाना एक धार्मिक कर्त्तव्य मानें तो यह उनके कामका आनुषंगिक परिणाम था। 'बाइबिल'