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मेरा जीवन-कार्य

तो कहती है कि सलीबपर ईसाने अपने काम के सम्बन्ध में स्वयं यह कहा था कि 'मेरा काम पूरा हुआ'[१]। उनका यह निःस्वार्थ सेवाकार्य उनके पीछे समाप्त हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। उसका सर्वाधिक सत्य अंश तो सदा अमर रहेगा। उनके धर्मोंपदेशके बाद जो दो-तीन हजार वर्ष गुजरे हैं वे तो इस विशाल काल-चक्र में एक नन्हीसी छींटके समान हैं।

मेरा नाम पैगम्बरोंके साथ लिया जाये, मैं अपने को इस योग्य नहीं समझता। मैं तो एक विनम्र सत्य-शोधक हूँ। मैं इसी जन्ममें आत्म-साक्षात्कार करने और मोक्ष प्राप्त करनेके लिए अधीर हूँ। मैं अपने देशकी जो सेवा कर रहा हूँ वह तो मेरी उस साधनाका एक अंग है जिसके द्वारा में पंचभौतिक देह-धारणसे अपनी आत्माको मुक्त करना चाहता हूँ। इस दृष्टिसे मेरी देश-सेवा केवल स्वार्थ-साधना समझी जा सकती है। मुझे इस नाशवान् ऐहिक राज्यकी कोई अभिलाषा नहीं है। मैं तो ईश्वरीय राज्य—मोक्षको पानेका प्रयत्न कर रहा हूँ। अपने इस ध्येयकी सिद्धिके लिए मुझे गुफामें जाकर बैठनेकी कोई आवश्यकता नहीं। गुफा तो मैं अपने साथ ही लिये फिरता हूँ। अलबत्ता इसकी प्रतीति-भर हो जाये। गुफा-निवासी साधक मनमें महल खड़े कर सकता है; पर जनक-जैसे महलमें रहनेवालोंको ऐसे महल बनानेकी जरूरत ही नहीं पड़ती। जो गुफावासी विचारों के पंखोंपर बैठकर दुनियाके चारों ओर मँडराता है, उसे शान्ति कहाँ? परन्तु जनक राजमहलोंमें आमोद-प्रमोदमय जीवन व्यतीत करते हुए भी कल्पनातीत शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। मेरे लिए तो मुक्तिका मार्ग है अपने देश और उसके द्वारा मनुष्य जातिको सेवाके निमित्त सतत् परिश्रम करना। मैं संसारके प्राणिमात्रसे अपना तादात्म्य कर लेना चाहता हूँ। मैं 'समः शत्रो च मित्रे च' हो जाना चाहता हूँ। इसीलिए यदि कोई मुसलमान, हिन्दू या ईसाई मुझसे नफरत करता हो, तो भी मैं उसको उसी भावसे प्रेम करना चाहता हूँ, जिस भावसे मैं अपनी पत्नी और बेटेको, उनके नफरत करनेके बावजूद, प्रेम करता हूँ। इस प्रकार मेरी देशभक्ति और कुछ नहीं, अपनी चिर-मुक्ति और शान्ति-लोककी मंजिलका एक विश्राम स्थान है। इससे यह मालूम हो जाता है कि मेरे समीप धर्म-शून्य राजनीति कोई वस्तु नहीं है। राजनीति धर्मकी अनुचरी है। धर्महीन राजनीतिको एक फाँसी ही समझा जाये, क्योंकि उससे आत्मा मर जाती है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-४-१९२४
  1. जॉन, १९-३०।