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मेरी निराशा

अविभक्त प्रयोगोंको तोड़कर उसमें से केवल 'अवज्ञा' को ग्रहण करनेवाले मनुष्य दिखाई देते हैं तबतक सविनय अवज्ञाको चलाना असम्भव-सा प्रतीत होता है। लेकिन यदि लोग सविनय अवज्ञा करनेवालोंका बहिष्कार करें तो सविनय-अवज्ञा करनेवाले अपनी शक्तिका प्रयोग करके बता सकते हैं। यदि ऐसा सम्भव न हो तो मुझे सरकारके समान ही अशान्ति चाहनेवाले पक्षके साथ भी असहयोग करना होगा।

मैं नहीं मानता कि देश अशान्तिके लिए तैयार है अथवा दुर्बल 'भात खानेवालोंके' लिए अशान्तिसे स्वराज्य प्राप्त करनेका कछ अर्थ हो सकता है। वे तो हमेशा अशान्तिके उपासकोंके शिकार रहेंगे जैसे कि वे आज है। अशान्तिके पुजारी हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंके लिए स्वराज्य नहीं चाहते, अपितु अपने लिए सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। वे इस आरोपको स्वीकार नहीं करेंगे। उनकी प्रवृत्तिका परिणाम यही होगा, इस तथ्यसे वे स्वयं परिचित नहीं है। मैं उन्हें दोष देने के लिए यह लेख नहीं लिख रहा हूँ। मैं तो मात्र उनकी प्रवृत्तिका परिणाम ही बता रहा हूँ।

शान्तिके मार्गसे ही हिन्दुस्तान कुछ महीनोंमें स्वराज्य प्राप्त कर सकता है। अशान्तिके मार्गसे तो सौ वर्षमें भी स्वराज्य नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त हम जिस स्वराज्यके लिए प्रयत्न कर रहे हैं वह यदि गरीबोंका और 'भात खाने' वाली, दुर्बल प्रजाका स्वराज्य है तो अशान्तिसे प्राप्त स्वराज्यमें वे सौ वर्षतक भी अपनी दुर्बलतासे मुक्त नहीं हो सकेंगे। शान्तिके प्रयोगसे हम दुर्बल लोगोंको भी यह बताते हैं कि यदि चाहें तो वे यह दिखा सकते हैं कि उनके शरीरमें बसनेवाली आत्मा भी उतनी ही शक्तिशाली है जितनी किसी चक्रवर्ती सम्राट्की।

यदि यह बात झूठी हो, इस मान्यतामें त्रुटि हो तो यह 'शान्तिपूर्ण' असहयोगकी प्रवत्ति भी झूठी है और हमें [शान्तिपूर्ण शब्दको छोड़कर] केवल शब्दका ही प्रयोग करना चाहिए। हमें विनय, शान्ति, सत्य आदि शब्दोंके प्रयोगका त्याग करना चाहिए और साम्राज्यको राक्षसी कहनेका रिवाज भी छोड़ना चाहिए। राक्षसी तरीकोंसे लड़नेवाले मनुष्यको अपने प्रतिपक्षीकी प्रथाको राक्षसी मानने अथवा कहनेका अधिकार नहीं रहता।

इस तरह मेरी निराशाके कारणोंकी कोई सीमा नहीं है तथापि मैं आशा तो नहीं छोड़ेगा। मैं आशा रखता हूँ कि हिन्दस्तान बारडोलीके प्रस्तावोंके सम्पूर्ण फलिताको समझेगा। मैं आशा रखता हूँ कि अगर सब प्रान्त नहीं समझते तो कुछ प्रान्त तो इस बातको समझेंगे ही। मैं आशा करता हूँ कि अन्ततः गुजरात तो शान्तिके पाठको अच्छी तरहसे अवश्य समझ जायेगा। मैं आशा करता हूँ कि मैं कदाचित् गुजरातको भी न समझा सकूँ तो सारे हिन्दुस्तानमें इस महान् प्रयोगके महत्त्वको समझनेवाले कुछ लोग तो अवश्य निकल आयेंगे और अन्तमें मुझे कमसे-कम इतनी आशा तो है ही कि यदि मैंने हिन्दुस्तानको सदा सत्यरूपी एक ही मार्ग बताया हो, तो सब प्रकारकी परीक्षा और कसौटीके बावजूद ईश्वर मुझे अपनी टेकपर अडिग रहनेकी सन्मति और शक्ति अवश्य देगा। इसलिए निराशासे घिरा हुआ होनेके बावजूद मैं आशावादका सहारा नहीं छोड़ता, क्योंकि ईश्वरका अर्थ है सत्य और सत्यका अर्थ है शान्ति।