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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

निश्चय ही ईश्वर सत्यका रक्षक है। सत्यकी सदा ही जय होती है, यह जानने के बावजूद अगर मैं भयके कारण अविश्वास रखूँ तो मुझ जैसा कायर कौन होगा?

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ५–३–१९२२
 

३. स्वदेशी बनाम खादी

"स्वदेशी" शब्द अत्यन्त परिचित है। यह एक व्यापक शब्द है। ऐसे शब्दका असर अच्छा भी होता है और बुरा भी। समुद्र व्यापक है। वह न हो तो हमें प्राणवायु ही न मिले। परन्तु समुद्र अग्निकी तरह सर्वभक्षी है। उसमें गंदगी तो इतनी मिलती रहती है कि उसका पार ही नहीं। पर फिर भी वह विशुद्ध ही बना रहता है। किनारा छोड़ते ही उसका पानी आईने की तरह पारदर्शक दिखाई देता है। सूर्यकी किरणोंमें उसका फेन हीरे-मोतीकी तरह चमकता है, हीरे-मोतीका तेज उसके आगे तो कोई चीज ही नहीं। समुद्रपर नौका तैरती है। पर यदि उसका पानी कोई पी लें तो कै हुए बिना न रहे। पीनेका पानी तो कएँ-बावली में छोटे-छोटे पोखरोंमें मीठेसे-मीठा मिलता है। इसी प्रकार स्वदेशी भी एक समद्र है, महासागर है। उसके सहज पालनसे देश तर सकते हैं। व्याख्यामें वह शब्द सुन्दर मालूम होता है। पर आज तो यदि हम स्वदेशीके समुद्र में कूद पड़ें तो डूब जायें। आज तो वह एक ऐसा मनोरथ है जिसे पूरा कर पाना हमारी शक्तिके बाहरकी बात है।

स्वदेशीके नामपर कोई कहते हैं कि हम तो स्वदेशी ताले ही बनायेंगे या लेंगे 'चब' के नहीं। कोई 'रॉजर्स' चाकूको छोड़कर ऐसे कुन्द चाकूको जो नक्कूकी नाकपर भी नहीं चलता, पसन्द करते हैं अथवा नये चाकू बनानेका प्रयत्न करते हैं। कोई स्वदेशी कागज चाहता है, कोई रोशनाई, कोई होल्डर और कोई आलपीन। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी इच्छाके अनुसार स्वदेशी वस्तुको चाह प्रकट करके उसकी भावनाका पोषण करता है। पर उससे देशका काम नहीं चलता। इससे तो स्वदेशीका काम और नाम दोनों भ्रष्ट होते हैं।

मकान बनानेवाला कारीगर पहले ही से झरोखे, खिड़कियाँ-दरवाजे, सजावट आदिके फेरमें नहीं पड़ता। पहले तो वह बुनियाद डालता है। फिर दीवारें उठाता है और जब इमारत पूरी हो जाती है तब उसपर चूना-कलई चढ़ाता है। यही हाल स्वदेशीको रचनाका है।

हम अब स्वदेशीका रहस्य इस हदतक समझ गये हैं, और उसका व्यावहारिक उपयोग इतना जान चुके है कि उसका सच्चा और विशेष अर्थ हम जान गये है। स्वदेशीके नामपर हमने आजतक अपनेको धोखा दिया, कुछ उलट-फेर किये। स्वदेशीके मानी है देशमें तैयार हुआ कपड़ा, यह पहली सीढ़ी थी। फिर देखा कि विदेशी सूतका देशमें बना कपड़ा सच्ची स्वदेशी नहीं है। उससे देशको बहुत ही थोड़ा लाभ होता है। दूसरी सीढ़ी यह हुई कि यदि सूत देशी मिलोंका ही कता हुआ हो और देशी