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स्वदेशी बनाम खादी

मिलोंमें ही कपड़ा तैयार हो तो काम दे सकता है। पर अधिक अनुभव होनेपर देखा कि इससे भी अभीष्ट अर्थ सिद्ध नहीं होता। उसका एक कुफल यह हुआ कि मिलके कपड़ोंका भाव खूब तेज हो गया और ऐसा समय आ गया कि कपड़ेकी तंगी होने लगी।

तीसरी सीढ़ी यह थी कि सूत भले देशी मिलोंका हो पर वह बुना हाथकरघोंपर जाना चाहिए। इससे भी हम स्वदेशीका मर्म नहीं समझ पाये थे।

अब मालूम होता है कि हम यह चौथी सीढ़ी जान गये है कि स्वदेशीके मानी है हाथ-कते सूतकी हाथ-बुनी खादी। इसको छोड़कर दूसरी सब बात और निरर्थक हैं।

खादीका मतलब है चरखा। चरखे बिना खादी कहाँसे तैयार हो सकती है? खादी स्वराज्यकी तरह हमारा जन्मसिद्ध हक है और आजन्म केवल उसीका उपयोग करना हमारा कर्त्तव्य है। जो इस कर्त्तव्यका पालन नहीं करता वह स्वराज्यको नहीं पहचानता।

स्वदेशीका और स्वराज्यका यही हेतु हो सकता है, और है भी कि उसके द्वारा भूखसे पीड़ित भारत के लोगोंको भोजन मिले, भारतसे दुर्भिक्षका काला मुँह हो जाये, भारतकी महिलाओंके सदाचारकी रक्षा हो, भारतके बच्चोंको दूध मिले।

जबतक भारतमें चरखा चूल्हेकी तरह सर्वव्यापी नहीं हो जायेगा तबतक भारतका फिरसे आजाद होना मेरी समझमें असम्भव है।

फर्ज कीजिए कि आज हिन्दुस्तानको स्वेच्छापूर्वक व्यवहार करनेकी आजादी मिल गई, मान लीजिए कि भारतने बाहरसे सस्तेसे-सस्ता कपड़ा मँगाया, भारतने अपनी तथा विलायतकी परिस्थितिके विरोधपर विचार किये बिना 'फ्री ट्रेड' यानी ऐसा व्यापार शुरू किया जिसमें बाहरसे आनेवाले मालपर करकी कोई रोक नहीं होती तो भारतकी दशा आजसे भी अधिक खराब हो जायेगी।

भारतको यदि कोई मुफ्तमें पकाकर खाना दिया करे तो जिस प्रकार उसके चूल्हे उखाड़ फेंकना अनुचित है उसी प्रकार चरखेको धता बता देना ला हुआ। चूल्हेमें कितना बखेड़ा है। घर-घर चूल्हा और घर-घर आग, कितना अनर्थ है। हरएक गहिणीको सूबह हुई कि धुआँ खाना पड़ता है, कितना अत्याचार है। ऐसी मनमोहक दलीलोंके धोखेमें आकर यदि हम चूल्हेको उखाड़ फेंके और हर गाँवमें लोग भोजनालयोंमें ही भोजन किया करें तो कैसा हो? तो भारतके बच्चोंको दर-दर भटकना पड़े, इसमें तिलमात्र सन्देह नहीं। चूल्हेका नाश अर्थशास्त्र नहीं, यह तो अनर्थशास्त्र है। उसे तो शास्त्रका नाम देना भी शोभा नहीं देता।

चरखेको नष्ट करके हमनें भूख और व्यभिचारको अपने घर न्यौत लिया है। चूल्हेको हटाना मानो मौतको बुलाना है। यदि हम चरखेकी पुनः स्थापना करें तो हमारे खण्डहरवत् टूटे-फूटे घर फिरसे दमक उठें।

इसलिए इस समय हमारा विशेष और सर्वोपरि धर्म खादी है। खादीकी बिक्री घीकी तरह होनी चाहिए। हाथका कता सूत दूधकी तरह कीमती समझा जाना चाहिए। चरखा भी एक पूजनीय गाय है। जिस प्रकार गाय बिना घरकी शोभा नहीं