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२९३. 'नवजीवन' के पाठकोंसे

दो वर्ष के वियोग के बाद मैं आपसे इस पत्र के द्वारा मिल रहा हूँ। मैं 'नवजीवन' को अपने पाठकों के प्रति प्रेषित अपना साप्ताहिक पत्र मानता हूँ। इसके द्वारा आपके साथ मेरा सम्बन्ध घनिष्ठ हुआ है। अपने विषयमें तो मैं कह सकता हूँ कि इस वियोगसे यह सम्बन्ध शिथिल होनेकी बजाय और मजबूत हुआ है। जबसे मैं छूटा हूँ, आपसे फिर परिचय करनेके लिए छटपटा रहा हूँ। मुझे जेलमें जब आपके स्नेहको याद आती थी तब मैं हर्षसे फूल जाता था। मैं बराबर सोचा करता था कि जेलमें किये गये चिन्तनका परिणाम में आपके सामने कब प्रस्तुत कर सकूँगा। आज मैं अपने विचारको कार्य रूपमें परिणत कर पा रहा हूँ; इसके लिए मैं ईश्वरका अनुग्रह मानता हूँ।

मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि यदि मैं आपके सामने कोई नवीन विचार प्रस्तुत न कर सकूँ तो आप उकता न जायें। अपने देशकी उन्नति के लिए मुझे नवीन साधन नहीं मिले हैं। दो साल पहले हम जिन साधनोंसे काम लेते थे उन्हीं के द्वारा (दूसरोंके द्वारा नहीं) हम अपने ध्येयको प्राप्त कर सकते हैं, यह विचार मेरे मन में अधिक दृढ़ हो गया है। इसी कारण आपको 'नवजीवन' में इन साधनोंके सम्बन्ध में मेरी दृढ़ता दिखाई देगी। परन्तु उन्हीं, एक ही तरहके, साधनोंकी चर्चा 'नवजीवन 'में करते रहने से क्या लाभ? उससे आप ऊब तो न जायेंगे? इसका जवाब तो आप ही दे सकेंगे। यदि आप ऊब जायेंगे तो 'नवजीवन' पढ़ना बन्द कर देंगे।

मेरा आग्रह यह है कि 'नवजीवन' घाटा उठाकर न चलाया जाये। मैं तो उसका निकलना तभी सफल समझँगा जब उसकी बिक्रीसे ही उसका खर्च पूरा हो जाय।

सत्य उतना ही पुरातन है जितना कि यह जगत्। परन्तु फिर भी हम उससे ऊब नहीं जाते। असत्यका आचरण करते हुए भी हमें सत्यका खयाल रहता है। वही हमारा मानदण्ड है। उसका अनुभव-पाठ हमें नित नई वस्तुकी तरह अच्छा लगता है। 'नवजीवन' के द्वारा आपको जो कुछ दिया गया है और दिया जायेगा वह मुख्यतः अनुभव पाठ ही था और अब भी होगा। इसीलिए 'नवजीवन' के भविष्य के विषय में मुझे सन्देह नहीं है। भाई शंकरलाल बैंकर और इन्दुलाल याज्ञिकने जब मुझे 'नवजीवन' के सम्पादकका पद सौंपा था[१] तभी मैंने उनको यह बता दिया था कि यदि 'नवजीवन' को चलानेसे कोई लाभ होगा तो वह मुझे और मेरे साथियोंको नहीं चाहिए। उसका उपयोग किसी सार्वजनिक कार्य में ही किया जायेगा।

आपने जो कुछ किया है वह आशासे अधिक है। आपने 'नवजीवन' का खर्च तो चलाया ही; उसके अतिरिक्त 'हिन्दी नवजीवन' और 'यंग इंडिया' में जो घाटा हुआ उसको भी पूरा कर दिया। मेरे साथियोंने मेरे पीछे जो परिश्रम किया है उसको

  1. सितम्बर १९१९ में।