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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बतानेका यह उपयुक्त स्थान नहीं। उन्होंने नवजीवन मुद्रणालय के कार्यको असाधारण रूपसे बढ़ाया है। वहाँसे अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। यदि मैं जेल न गया होता तो इतनी पुस्तकें कभी प्रकाशित न होतीं, यह बात मैं जानता हूँ। पहली बात तो यह है कि तब उनमें इतना उत्साह ही न होता। उन्होंने जल्दी स्वराज्य प्राप्त करनेमें अपना भाग नई पुस्तकों के प्रकाशनके रूपमें दिया है। इसके अतिरिक्त यदि मैं जेल न गया होता तो मेरे हाथसे इतनी पुस्तकें प्रकाशित न होतीं। उन्होंने पुस्तकें लागत मूल्यमें नहीं बेची हैं, उनपर कुछ लाभ रखा है। इसमें उनका कोई स्वार्थ न था, बल्कि वे यह जानते थे कि यदि बचत होगी तो उसका उपयोग लोकोपकारी कार्यों में किया जायेगा। यदि एक पुस्तकपर एक आना मूल्य अधिक रखा गया हो तो वह कदाचित् खरीदारोंको भारी नहीं पड़ता, किन्तु यदि खरीदार अधिक हों तो लाभ तो अच्छा हो ही जाता है। मुझे पाठकोंको बताना चाहिए कि इस कार्य में जहाँ लाभ हुआ है वहाँ हानि भी हुई है। सब पुस्तकोंकी खपत एक सी नहीं हुई है। इस कारण बहुत-सी पुस्तकें बिन बिकी पड़ी हैं।

इन उतार चढ़ावोंके बावजूद और 'यंग इंडिया' और 'हिन्दी नवजीवन' पत्रोंका घाटा उठानेपर भी पाँच सालमें 'नवजीवन' की हालत इस लायक हो गई है कि उसकी आयमें से (५०,०००) लोकोपयोगी कामों में खर्च किये जा सकते हैं। इस रकमको गुजरात प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीकी मार्फत चरखा और खादीके प्रचारमें लगानेका इरादा है। इसका विनियोग इस तरह किया जायेगा, जिससे गरीब बहनों और अन्त्यज आदि वर्गोंको प्रोत्साहन मिले।

यह रकम बची है इसके मुख्य कारण तो आप ही हैं। किन्तु इसमें मेरे साथियोंका भाग भी है, यदि मैं यह बात न कहूँ तो मैं उनके प्रति अपने कर्त्तव्यका पालन न करूँगा। स्वामी आनन्दानन्द, जिनके अथक उद्यम और 'नवजीवन के प्रति अनन्य भक्तिभावसे यह कार्य इतना बढ़ा है, एक पैसा भी नहीं लेते। इस तन्त्रके चलाने में जो बहुत से लोग लगे हैं उनमें से अधिकतर केवल निर्वाह योग्य रकम लेकर ही सन्तोष करते हैं। जो लोग 'नवजीवन' में लेख लिखते हैं मुझे क्या उनका नाम भी लेना चाहिए? उनको कोई वेतन नहीं दिया जाता। यदि मौजूदा वेतन दरोंसे इनका वेतन लगाया जाये तो उसकी रकम कमसे कम १,००० रुपया प्रति मास बनेगी। इसका अर्थ यह है कि यह पाँच वर्ष में ६०,००० रुपये हुई। अब आप देख सकेंगे कि ५०,००० रुपयेकी जो बचत हुई है वह कोई बहुत अधिक नहीं है। यदि 'नवजीवन' के ग्राहक कम न होते, पुस्तक विभाग में इस समय जो घाटा हो रहा है वह घाटा न होता और 'यंग इंडिया' और 'हिन्दी नवजीवन' अपना खर्च स्वयं चलाते होते तो ५०,००० रुपयेकी अपेक्षा कहीं अधिक बड़ी रकम बची होती। आगे जो भी मुनाफा रहेगा उसे हर साल बाँट देनेका इरादा है। स्वामी आनन्दानन्दको तो एक पाई भी बैंक में रखना पसन्द नहीं। वे मानते हैं और मैं भी उनसे सहमत हूँ कि सार्वजनिक संस्थाओंके पास रकम जमा पड़ी न रहनी चाहिए। जिस तरह हो सके उन्हें ईश्वरीय कानून के अनुसार चलना चाहिए। ईश्वर जीवोंके लिए रोजका खाद्य रोज तैयार करता है। यदि कितने हो लोग अपनी जरूरत से ज्यादा रकम जमा