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'नवजीवन' के पाठकोंसे

करके न रखें तो संसारमें कोई भूखा न रहे। फिर सार्वजनिक संस्थाओंको स्थायी पूँजीपर जीवित रहनेका अधिकार ही नहीं है। सार्वजनिक संस्थाएँ तभीतक जीवित रहनी चाहिए जबतक वे लोकप्रिय हों। जब लोग उन्हें सहायता देना बन्द कर दें तब उन्हें बन्द ही कर दिया जाना चाहिए।

इस बार [लाभकी रकम खर्च किये बिना ही] पाँच वर्ष बीत गये इसका कारण तो आप समझ ही सकते हैं। मैं जेल गया इससे पहले ही लाभकी इस रकमको लोकोपयोगी कार्यों में लगाने की बात चल रही थी। मेरे लगभग समस्त साथी भी जेल जानेके लिए निकल पड़े, इसलिए लाभकी यह सब रकम बिना खर्चकी हुई पड़ी रही।

इसके साथ ही दूसरी कुछ बातें भी बता दूँ। 'हिन्दी नवजीवन' और 'यंग इंडिया' को घाटा उठाकर दीर्घ कालतक चलानेका कोई विचार नहीं है। मुझे विश्वास है कि यदि 'नवजीवन' के लाभमें से ये पत्र चलाये जायें तो आपको इससे कोई ईर्ष्या न होगी। कदाचित् आप तो यही चाहेंगे कि ये पत्र इस तरह भले ही चलते रहें। किन्तु मेरी मान्यता यह है कि पत्रोंको इस तरह चलानेकी पद्धति बुरी है। इसीलिए मैं पाठकोंको सावधान कर रहा हूँ कि यदि इन पत्रोंका घाटा अधिक समयतक जारी रहेगा तो इन्हें बन्द ही कर देना चाहिए।

पाठको, आप 'नवजीवन' को अपना शौक पूरा करनेके लिए नहीं पढ़ते बल्कि यह जानने के लिए पढ़ते हैं कि देश में जो यज्ञ हो रहा है उसमें आपका सेवा-स्थान कहाँ है। यदि 'नवजीवन' के पाठक ही अपना कर्त्तव्य अच्छी तरह समझ लें तो आप यह निश्चित मानें कि स्वराज्य 'हस्तामलकवत्' है।

स्वराज्य प्राप्त करने के लिए केवल सच्चे और शान्त सिपाहियोंकी जरूरत है। सच्चे काम के लिए कभी पैसे की तंगी नहीं हो सकती। हमारा हथियार है सूत्र चक्र-चरखा। हमारा गोला-बारूद है सूतके गोले। एक सज्जन बन्दुकके आकारका चरखा बनाकर मेरे पास रख गये हैं। उसके साथ उन्होंने कारतूसोंसे भरी पेटी भी लगायी है। इस पेटी में रखी पूनियाँ ही कारतूस हैं। इन महाशयका यह परिश्रम सूचित करता है कि चरखेपर उनका विश्वास कितना गहरा है। हम आजतक स्वराज्य नहीं प्राप्त कर सके, इसका कारण साधनका दोष नहीं बल्कि साधन-विषयक अविश्वास, उद्यमकी कमी और कार्य दक्षताका अभाव इत्यादि है। 'नवजीवन' इस बातका प्रयत्न करेगा कि आपको ये खामियाँ बार-बार दिखाई जायें और आपने अबतक जितनी देश-सेवा की है उसमें वृद्धि हो। मैं चाहता हूँ कि आप उसमें सहायक हों।

आपका सेवक,
मोहनदास करमचन्द गांधी

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ६-४-१९२४