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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


बोरसदमें तो सत्याग्रहकी ही पूर्ण विजय हुई। उसमें मान और अर्थ दोनोंकी रक्षा हुई और उसमें किसी दूसरे जायज या नाजायज साधनकी खिचड़ी बिलकुल नहीं हुई।

यह भी खयाल करनेकी जरूरत नहीं कि परिस्थिति अनुकूल थी, इसलिए जीत हो गई; क्योंकि गवर्नर[१] भले आदमी निकले। गवर्नरको न्याय करने के लिए हमें अवश्य धन्यवाद देना चाहिए। परन्तु क्या संगदिल हाकिम बोरसदके शुद्ध आग्रहको दवा सकता था? श्रद्धावान् लोग तो यह भी मानेंगे कि सात्विक कामको करनेवाले लोग भी यदि सात्विक हों तो परिस्थितियाँ अपने-आप अनुकूल हो जाती हैं। सत्याग्रहका कायदा ही यह है कि विरोधीको मित्र बनायें—दूसरे शब्दों में सात्विक परिस्थिति उत्पन्न करें।

यदि बोरसदका सत्याग्रह करके गुजरातने विश्राम किया होता तो भी कोई उसकी ओर अँगुली न उठा पाता। परन्तु सत्याग्रहीको आराम कैसा? नित्य नया उद्यम ही उसका 'वेकेशन' है। सत्याग्रहका अर्थ 'अन्तर्दर्शन' भी किया जा सकता है। बोरसदमें लोगोंने 'अन्तर्दर्शन' किया तो उन्हें दिखाई दिया कि बोरसदपर बतौर सजाके जो पुलिस बिठाई गई, उसमें कुछ दोष उसका भी था। एक दोषको देखनेपर दूसरा अपने-आप दिखाई देने लगता है। इसलिए अब वहाँ आन्तरिक सुधारका काम हो रहा है। सरकारसे जूझनेकी अपेक्षा यह काम अधिक कीमती और अधिक कठिन है। सरकारसे लड़कर विजय प्राप्त करना मानो खेतकी निराई थी। अब फसल पैदा करना और उसे काटनेकी मेहनत करना है। उसमें अधिक कठिनाइयाँ हैं, और इसलिए अधिक समयकी जरूरत है। सुनता हूँ, यह काम भी अच्छी तरह चल रहा है। इस कामकी सफलतासे ही बोरसद तहसीलकी जनताकी और स्वयंसेवकों की शक्ति और योग्यताकी परीक्षा होगी।

असहयोगके अन्य अंगोंके बारेमें भी गुजरात के विफल होनेकी कोई आशंका नहीं है। असहयोगी स्कूल जितने गुजरातमें हैं उतने अन्य प्रान्तों में नहीं हैं। खादी प्रचार, अस्पृश्यता निवारण आदिमें गुजरातने काफी कुछ किया है; दूसरे प्रान्तों की तुलनामें उसे शरमाना पड़े, ऐसी बात नहीं है। हिन्दू-मुस्लिम एकतामें भी किसी तरहको दरार नहीं पड़ी है, यद्यपि मैं देखता हूँ कि आसपास के वातावरणका असर उसके ऊपर भी कुछ हुआ है। इन सारे कार्योंके लिए मैं गुजरातको धन्यवाद देता हूँ। लेकिन साथ ही यह कह देता हूँ कि जो हुआ है उसकी अपेक्षा अभी जो शेष बचा है वह बहुत ज्यादा है। हमारी राष्ट्रीय शालाओं में जो शिक्षण दिया जा रहा है उसे वस्तुतः राष्ट्रीय बनाना अभी शेष है। शालाएँ भी अभी संख्या में कम ही हैं। खादी-प्रचार अभी बहुत बढ़ाना है। अभी घर-घरमें चरखेकी स्थापना नहीं हुई है। अन्त्यजों की सेवामें काफी कमियाँ दिखती हैं। उसके लिए अनेक उद्यमी, कुशल और चरित्रवान सेवकोंकी आवश्यकता है। जबतक इन सब दिशाओं में सन्तोषजनक प्रगति नहीं होती तबतक हम चैनसे नहीं बैठ सकते।

  1. सर लेस्ली विलसन।