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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि श्रीमती नायडू भी ऐसी राय न देंगी। खादी पूर्व आफ्रिका, अदन आदि प्रदेशों में आसानीसे पहनी जा सकती है। वह दक्षिण आफ्रिकामें भी गर्मियोंमें पहनी जा सकती है। मतलब यह है कि गरम मुल्कोंमें खादी पहननेमें दिक्कत नहीं होगी। फिर, घरके अन्दर तो ज्यादातर चीजें खादीकी ही होनी चाहिए।

पर हाँ, मैं यह राय जरूर दूँगा कि यदि हम ऐसे देशमें जायें जहाँ कपास पैदा होती हो और खादी बनती हो तो वहाँ हमें वहींका बना कपड़ा पहनना चाहिए। जो नीति हम भारतके लिए चाहते हैं वही दूसरे देशोंके लिए भी होनी चाहिए। जिस प्रकार यहाँ आनेवाले विदेशियोंको इस देश में जो सामान मिलता है उसीका इस्तेमाल करना अभीष्ट है, उसी प्रकार हमें भी दूसरे देशोंमें करना चाहिए। पूर्व आफ्रिका आदि देशोंमें तमाम कपड़ा विदेशोंसे ही आता है। हमने कभी नहीं सुना कि वहाँ कपड़ा बनता है। अतः हमें वहाँ खादी इस्तेमाल करनेका अधिकार है, यही नहीं बल्कि मेरी मान्यता है कि उसे भरसक इस्तेमाल करना हमारा धर्म है। सत्याग्रह संग्रामके दरम्यान ज्यों-ज्यों मेरे विचार पुष्ट होते गये और ज्यों-ज्यों मैंने सादगी और गरीबीको ज्यादा जरूरत देखी त्यों-त्यों में सादगी अखत्यार करता गया और अन्तमें हिन्दुस्तान से आनेवाला कपड़ा पहनने लगा तथा मैंने अपना लिवास हिन्दुस्तानी मजदुरकी तरह बना लिया। उसके बाद मैंने यही लिबास, अर्थात् मद्रासियों-जैसी लुंगी और कुरता पहना। मैं जाड़े में मोटे लट्ठेके दो कुरते पहनता। टोपी छोड़ दी थी। मैं इसी लिबासमें तमाम हाकिमोंसे मिलता था। परन्तु इससे मेरे अंग्रेज मित्रों अथवा हाकिमोंको बुरा लगा हो, यह मैंने नहीं देखा। मैं मजदूरोंकी ओरसे लड़ाई लड़ रहा था। मुझे उनके जीवन और लिबासका अनुकरण करते हुए देखकर कितने ही अंग्रेज मित्र धन्यवाद भी देते थे। यहाँ यह सब कहने का मतलब इतना ही है कि यदि हम विदेशों में इतने ही कपड़े पहनें, जिनसे हमारे अवयव ढक जायें तो पर्याप्त है।

श्रीमती नायडूके भाषणके प्रेषित अंशमें एक मुद्दा ध्यान देने योग्य है। उनके भाषणका सम्बन्ध हमारी कुटेवोंसे था। उसमें हमारी गन्दगी और भोंडेपनका वर्णन था। अंशतः यह आरोप सच है। लिबास खादीका हो अथवा दूसरे कपड़ेका परन्तु यदि वह मैला, और भोंड़ा हो तो आँखोंको अच्छा नहीं दिखाई देता। सुघड़ताकी जरूरत शृंगार के लिए नहीं बल्कि स्वच्छता और शिष्टताके लिए है। उसी लिबासको एक मनुष्य भद्दे तरीकेसे पहने तो वह भोंडा मालूम होता है और इसी को दूसरा ठीक तरहसे पहने तो सुघड़ मालूम होता है। इससे मर्यादाका पालन होता है और दूसरोंके प्रति आदर भाव व्यक्त होता है। हमें इसमें गफलत न करनी चाहिए। शिष्टतायुक्त सुघड़ता और शृंगारमें बहुत थोड़ा अन्तर है। परन्तु उस अन्तरको कायम रखनेकी बड़ी जरूरत है। मेरे कहने का यह आशय बिलकुल नहीं है कि हम प्रत्येक क्षण आईने में देखकर अपनी वेष-भूषा ही ठीक किया करें। पूर्व आफ्रिका के लोगों के सम्बन्धमें तो मुझे ऐसा डर भी नहीं है। तो हम जो कपड़े पहनें उनमें मैल जरा भी न होना चाहिए। सफेद खादीके कपड़े नित्य धोये जाने चाहिए। हम हिन्दुस्तान में तो एक छोटी-सी धोती पहनकर मर्यादाका पालन कर सकते हैं। हिन्दुस्तानकी उत्कृष्ट