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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसका अर्थ भी अनेक गुजराती नहीं जानते होंगे। शब्दकोष में उसके लिए कोई शब्द भी नहीं है। शास्त्रोंमें हो भी कैसे सकता है? उसका अर्थ है अस्पृश्य लोगोंका अन्य हिन्दुओंसे अमुक दूरीपर रहना तथा चलना। अस्पृश्योंकी छाया मात्रसे अन्य हिन्दू और मुख्य रूप से ब्राह्मण अपवित्र हो जाते हैं, इस मान्यता के कारण उन्हें जहाँ ब्राह्मण आदि चलते हों उन रास्तोंपर चलते हुए अमुक गजके अन्तरपर चलना पड़ता है। यदि वे ऐसा न करें तो उनपर गालियोंकी बौछार और मार भी पड़ सकती है। त्रावणकोरमें कितने ही ऐसे रास्ते भी हैं जहाँ इन बेचारोंको प्रवेश भी नहीं करने दिया जाता। इस असहनीय दूषणसे दुःखी होकर, जैसा ऊपर कहा गया है, वहाँकी कांग्रेस के हिन्दुओंने सत्याग्रह आरम्भ किया है। ये दुरदुराये जानेवाले हिन्दू जिस रास्तेपर चलने के अपने अधिकारको सिद्ध करना चाहते हैं उस रास्तेपर एक इतर हिन्दूको लेकर प्रवेश करते हैं। इस तरहसे हमेशा तीन-तीन व्यक्ति एक साथ जाते हैं और पकड़े जाते हैं। इस तरीकेसे तीन व्यक्ति पकड़े जा चुके हैं और छः महीने की सजा भोग रहे हैं। यदि यह सत्याग्रह शान्तिपूर्वक और लगातार चलता रहा तो लोगोंकी जय होगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

उत्तर हिन्दुस्तान में इस दोषको दूर करने के लिए जुटे हुए हिन्दू इससे भी बहुत आगे बढ़ गये हैं। भारतभूषण मालवीयजीकी मदद से और उनके नेतृत्व में अन्त्यज हिन्दू कुँएसे पानी भरते हैं। अस्पृश्यताका दोष तो मालूम होता है, अनेक स्थानों पर नष्ट हो गया है। अब अस्पृश्य माने जानेवाले भाइयोंको कुँएका उपयोग करनेकी सुविधा मिलने लगी है। दाहोद ताल्लुकेके मन्त्रीने ऐसी एक घटनाका समाचार दिया है।[१] वे लिखते हैं कि स्थानीय बोर्डके कुँएसे अन्य हिन्दू अन्त्यजोंको पानी नहीं भरने देते थे। एक बुनकरने, जिसने वर्नाक्यूलरकी अन्तिम परीक्षा पास की है, इस कुँएसे पानी भरनेकी हिम्मत की और अपने अन्य जाति भाइयों को समझाया। वे समझ गये और कुँएसे पानी भरने गये। अन्त्यजेतर हिन्दुओंने विरोध करनेका प्रयत्न किया लेकिन सब इन्स्पेक्टरने उनकी मदद नहीं की और उन्हें समझाया कि जब सारे देशमें इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा है तब उन्हें इसका विरोध नहीं करना चाहिए। फलस्वरूप अन्त्यजेतर हिन्दू भाई शान्त हुए। बात अच्छी तरह निपट गई कही जा सकती है। लेकिन इस घटना से पता चलता है कि अभी गुजरातमें भी अन्त्यज भाइयोंको सार्वजनिक कुँओंसे पानी भरनेसे रोका जाता है। दाहोद के हिन्दू भाइयोंको मैं बधाई देता हूँ, लेकिन साथ ही दाहोद समितिको सुझाव देता हूँ कि वे लोग अन्त्यजवाड़े में जाकर उन्हें सफाईका बोध करायें, घड़ा आदि साफ रखने की सलाह दें। यदि ये सुधार इसके साथ ही नहीं हुए तो यह जो शुभ आरम्भ हुआ है, इसी बीच सम्भव है कि अन्त्यजोंको पानी भरने देनेकी बातका विरोध फिरसे होने लगे। मैंने सुना है उत्तरमें कई जगह ऐसी घटनाएँ हुई भी हैं।

[गुजराती से]
नवजीवन, ६-४-१९२४
  1. बादमें यह समाचार गलत पाया गया था। देखिए "भूल सुधार", २७-४-१९२४।