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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वामी श्रद्धानन्द और दूसरा 'तेज' के सम्पादकके नाम है।[१] अखबारोंमें मौलानापर आये दिन जो लांछन लगाया जा रहा है, इन पत्रोंसे उनका पूरी तरह निराकरण हो जाता है। भारतकी स्वतन्त्रताके शत्रुओंने मौलानाके कथनको विकृत करनेमें और उसका उपयोग हिन्दुओंको मौलानासे भिड़ाने के लिए करनेमें कोई संकोच नहीं किया है। मैं प्रत्येक विचारशील हिन्दूका ध्यान इन पत्रोंकी ओर आकर्षित करता हूँ। मेरी विनम्र सम्मति में इन पत्रोंसे मौलानाकी नितान्त निश्छलता व्यक्त होती है।

उनके जिस कथनको कुछ अखबारोंने इतनी बेरहमी से तोड़ा मरोड़ा है वह मूलतः क्या है? उन्होंने असल में यही कहा है, इस्लाम धर्म गांधी के धर्मसे ज्यादा अच्छा है। क्या उनके इस कथन में कोई रोष पैदा करनेवाली चीज है? जबतक यहाँ विभिन्न धर्म हैं तबतक क्या मौलानाकी यह स्थिति बिलकुल न्यायसंगत और सच्ची नहीं है? दक्षिण आफ्रिका और भारतमें मेरे अनेक परमप्रिय ईसाई मित्र हैं जो ईश्वरसे प्रार्थना करते रहते हैं कि वह मुझे प्रकाश दे। इनमें दक्षिण आफ्रिकाके एक प्रतिष्ठित अवकाश प्राप्त सॉलिसिटर हैं। उन्होंने मुझसे ईसामसीहको मानने और उनकी शरण में जानेका अनुरोध किया है। उनका कहना है कि जबतक मैं ऐसा न करूँगा तबतक मेरे सब प्रयत्न व्यर्थ होंगे। सचमुच हजारों ईसाई यह मानते हैं कि जिस सच्चे आदमीका ईसा में विश्वास नहीं है वह एक कुकर्मी ईसाईसे भी बुरा है। क्या कोई सनातनी हिन्दू भी ऐसा ही नहीं सोचता? यदि ऐसी बात न हो तो शुद्धि के सम्बन्धमें यह व्यग्रतापूर्ण प्रचार क्यों? सनातनी हिन्दू अपनी पुत्रीके लिए पतिका चुनाव करनेमें धर्मका खयाल छोड़कर सर्वोत्तम व्यक्तिको चुनेगा अथवा अपने ही सम्प्रदाय के अच्छेसे-अच्छे मनुष्यको? यदि वह उस चुनावको अपने दायरेतक ही सीमित रखे तो क्या इससे यह प्रकट नहीं होता कि वह भी मौलानाकी तरह अपने धर्मको सब धर्मोंसे अच्छा मानता है?

मौलानाने अपने धार्मिक नियमका वर्णन सुन्दर भाषामें किया है और उसको उदाहरण देकर स्पष्ट करनेके लिए अपने सर्वोत्तम हिन्दू मित्रोंमें से मुझे चुना है एवं यह दिखाया है कि वे अपने धर्मको व्यक्तियोंसे, चाहे वे उनके कितने ही प्रिय क्यों न हों, अच्छा मानते हैं। इसके लिए उन्होंने मेरा उदाहरण चुननेमें यह समझकर अपने आपको निरापद माना कि मैं इसपर रोष नहीं करूँगा और उनको ऐसा माननेका अधिकार है। मैं यह मानता हूँ कि इसके लिए वे एक मित्रके प्रति उपेक्षा-भाव दिखाने अथवा उसके धर्मका अनादर करनेके दोषी ठहराये जानेकी अपेक्षा अपने धर्ममें दृढ़ आस्था दिखाने के कारण सम्मानित किये जानेके अधिक अधिकारी हैं।

उन्होंने यह प्रार्थना की है कि ईश्वर मेरे मनमें इस्लाम ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न करे। किसीको उनकी इस प्रार्थनासे भी किसी तरहका भय या आश्चर्य करनेकी आवश्यकता नहीं है। यदि वे मेरे लिए (अपने विश्वासके अनुसार) अच्छी से अच्छी कामना न करें तो वे मेरे सच्चे मित्र नहीं होंगे। सत्य और अहिंसाका चरम रूप ही मेरा धर्म है। इस सम्बन्धमें में भूलपर हो सकता हूँ। किन्तु यदि मैं अपने

  1. देखिए परिशिष्ट १३।