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हुआ है। कांग्रेसके लिए भी ऐसा ही होना चाहिए। यदि लोग कांग्रेसको धर्मका और कर्मका साधन मानते हों, यदि मुसलमान भाई यह मानते हों कि कांग्रेसके राज्यका अर्थ है खिलाफतका छुटकारा और मुसलमानोंकी स्वतन्त्रता, यदि हिन्दू लोग यह मानते हों कि कांग्रेसके राज्यका अर्थ है गोरक्षा और हिन्दुओंकी स्वतन्त्रता, यदि पारसी भाई यह मानते हों कि कांग्रेसके राज्यका मतलब है अगियारीकी रक्षा और पारसियोंकी आजादी, यदि भारतके ईसाई-यहूदी भी ऐसा ही मानते हों तो उन सभीको अपना स्वार्थ और धर्म समझकर कांग्रेसका पोषण करना चाहिए। कांग्रेसका पोषण करनेके मानी है कि उसे कुछ और नहीं तो कर अवश्य देना। यदि यह संस्था लोकप्रिय हो तो उसे धनकी कमी होनी ही नहीं चाहिए। इस बातका पता थोड़े ही दिनोंमें लग जायेगा कि यह संस्था लोकमान्य है या नहीं।

इस बार कांग्रेसने कर ही लगाया है। एक कर तो पहले से था—यह कि जो लोग उसके सभासद होना चाहते हैं, मतदाता होने की इच्छा रखते हैं उन्हें प्रतिवर्ष चार आने देने चाहिए। यह दूसरा कर ऐसा है जो उन सब लोगोंको—सरकारी नौकरोंको भी—फिर वे चाहे सभासद हों या न हों, जो कांग्रेसको पसन्द करते हैं, देना चाहिए।

जो तिलक महाराजको पूजते हैं वे लोग दें, जो यह मानते हैं कि उनके नामका बड़ेसे-बड़ा स्मारक स्वराज्य प्राप्त करना है, वे लोग दें।

वह कर क्या है? पिछले वर्षकी आमदनीका सौवाँ हिस्सा। अर्थात् जिसे सालाना सौ रुपया वेतन मिलता है उससे कांग्रेस एक रुपया चाहती है। यह कर हलकेसे हलका कहा जा सकता है। सरकार तो बही-खाते जाँचती है; पर कांग्रेस हृदयकी जाँच करेगी। जिसकी जैसी आमदनी हो उसके अनुसार यह रकम वह कांग्रेसके दफ्तरमें पहुँचा दे।

पर यह लेख लिखने में मेरा एक निजी हेतु भी है। प्रति सप्ताह 'नवजीवन' की लगभग ३५,००० प्रतियाँ बिकती हैं। एक प्रतिके पढ़नेवालोंकी संख्या कमसे-कम तीन मान लें तो १,०५,००० पाठक हुए। मैं उनकी परीक्षा लेना चाहता हूँ। यदि उन्हें कांग्रेसका कार्य पसन्द हो तो वे अपना कर 'नवजीवन' की मार्फत भेज दें। प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना कर सीधे भेज दे या यह भी हो सकता है कि 'नवजीवन' के पाठक अपने मित्रोंसे—अपरिचितोंसे नहीं—कर इकट्ठा कर लें और फिर स्वयं उसे 'नवजीवन' के दफ्तरको भेज दें। पहुँचकी सूचना 'नवजीवन' में प्रति सप्ताह प्रकाशित होती रहेगी और वह रकम प्रान्तीय कमेटी के मन्त्रीको पहुँचा दी जायेगी।

आशा है, सब लोग सचाईके ही साथ अपनी-अपनी आमदनीका भाग देंगे। हाँ, अधिक जितना चाहें उतना दें। कम किसीको नहीं देना चाहिए। जो कम देना चाहते हों वे भेंटके तौरपर जो चाहे सोदें। करके तौरपर तो तिलक स्वराज्य कोषमें कमसे-कम प्रति सैकड़ा १) ही देना चाहिए, अधिक भले ही जितना चाहें उतना दें। जो लोग अधिक दे सकते हैं वे अधिक जरूर दें जिससे न देनेवाले लोगोंकी रकमकी पूर्ति हो जाये। यह मान लिया जायेगा कि अधिक देनेवाले उन लोगोंकी ओरसे दे रहे हैं।