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३१७. मौलाना मुहम्मद अली और उनके आलोचक

मौलाना साहब के दो पत्र[१] यहाँ दिये जा रहे हैं। पहला पत्र स्वामी श्री श्रद्धानन्दजीके नाम और दूसरा 'तेज' के सम्पादकके नाम है। इन पत्रोंका अग्रलेखमें उल्लेख है।[२]

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १०-४-१९२४
 

३१८. असहयोग हिंसाका तरीका नहीं है

हममें जो अन्तर है, भारतकी वर्तमान स्थिति उसका एक अन्य विचित्र उदाहरण प्रस्तुत करती है। मैं 'अप्रतिरोध' के विचारका हामी हूँ। जहाँतक में समझता हूँ, गांधी अपने तरीकेको प्रेमका तरीका कहते हैं। किन्तु तब भी उनकी समझमें यह नहीं आता कि असहयोगका तरीका हिंसाका तरीका है"। मान लीजिए कि न्यूयार्कमें दूधको गाड़ियाँ चलानेवालों को कोई सच्चा, वास्तविक और भयंकर कष्ट है। मान लीजिए कि वे हड़ताल कर दें और न्यूयार्कमें बच्चोंके लिए दूध पहुँचाना बन्द कर दें। वे हिंसात्मक आक्रमणके लिए शायद किसीपर हाथ न उठायें तथापि उनका यह तरीका हिंसाका तरीका होगा। छोटे-छोटे बच्चोंकी लाशोंपर से गुजरकर ही वे 'असहयोग' के द्वारा विजय प्राप्त करेंगे। जैसा कि बट्रेंड रसेलने बोल्शेविकोंके बारेमें कहा था, "ऐसा कष्ट हमें उन साधनोंके विषयमें शंका करनेको बाध्य करता है, जो किसी वांछित लक्ष्यतक पहुँचनेके लिए काममें लाये जाते हैं।" असहयोगका परिणाम है लंकाशायरमें कष्ट; और वह अन्ततः विवेकको जाग्रत करनेकी बजाय क्रोधको जाग्रत करता है।
यह वृष्टान्त प्रस्तुत विषयपर पूरी तरह लागू नहीं होता, तथापि मेरे मनमें जो बात है उसका इससे एक हदतक ठोक निर्देशन होता है। भारतमें जो लोग स्वराज्यके समर्थक हैं वे आज विधान सभाओंमें पहुँचकर वहाँ असहयोग करके उनकी प्रगतिको रोकना चाह रहे हैं। यह इतिहासका एक संयोग है कि इंग्लैण्ड जहाँ नागरिक संस्थाओंका विकास जॉन फिस्क के शब्दों में संघर्षके अभाव में हुआ, उनका क्रमिक विस्तार सहयोगके प्रभावके आधारपर ही हो सका।
  1. पत्रोंके लिए देखिए परिशिष्ट १३।
  2. देखिए पिछला शीर्षक।

२३–२८