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असहयोग हिंसाका तरीका नहीं है।

परिस्थिति में रहकर बच्चोंको दूध पहुँचायें ही। जहाँ कर्त्तव्यका अतिक्रमण नहीं है वहाँ हिंसा भी नहीं है। और फिर मान लीजिए कि दूधकी गाड़ियाँ हाँकनेवाले ये लोग यह जानते हों कि उनके मालिक सस्ता किन्तु मिलावटी दूध देते हैं, तथा एक दूसरा दुग्धालय अच्छा किन्तु महँगा दूध देता है और उन्हें न्यूयार्कके बच्चोंके कल्याणकी चिन्ता हो, तो उनका दूधकी इन गाड़ियोंको हाँकनेसे इनकार करना प्रेमका कार्य होगा, चाहे फिर न्यूयार्ककी कोई अदूरदर्शी माता महँगे और प्रामाणिक दुग्धालयसे दूध न लेनेके कारण इस मिलावटी दूधसे भी वंचित ही क्यों न रह जाये। इस अदूरदर्शी माताकी कल्पना हमने तर्ककी दृष्टिसे की है।

कल्पित हृदयहीन दूधकी गाड़ी हाँकनेवालों तथा न्यूयार्कके बच्चोंकी लाशोंके ढेरोंकी बात करके 'यूनिटी' का लेखक हमें लंकाशायर ले जाता है और भारतीय असहयोगके सफल हो जानेके बाद उसके नाशका चित्र प्रस्तुत करता है। अपने मुख्य तर्कको सिद्ध करनेकी उतावलीमें लेखकने सीधे-सादे तथ्योंका अध्ययन करनेका कष्ट भी नहीं उठाया। भारतीय असहयोगकी योजना लंकाशायर अथवा ब्रिटिश द्वीपोंके किसी भी भागको हानि पहुँचानेके लिए नहीं की गई है। उसे तो अपना राजकाज आप चलानेके भारतके अधिकारको सत्य सिद्ध करनेके लिए अपनाया गया है। भारत के साथ लंकाशायरका व्यापार संगीनोंके बलपर स्थापित किया गया था और वह उन्हीं साधनोंसे कायम रखा जा रहा है। उसने भारतके उस एकमात्र अत्यावश्यक कुटीर उद्योगको नष्ट कर दिया है, जिससे यहाँके लाखों-करोड़ों किसानोंकी आय में कुछ योगदान होता था और जिसके कारण भुखमरी उनके दरवाजे तक नहीं फटक पाती थी। अब यदि भारत अपने कुटीर उद्योग और अपनी हाथकी कताईको पुनरुज्जीवित करनेका प्रयत्न करता है तथा कोई भी विदेशी कपड़ा, यहाँतक कि भारतीय मिलोंका बनाया कपड़ा भी खरीदने से इनकार करता है और इससे लंकाशायर तथा भारतीय मिलोंको हानि पहुँचती है तो इससे असहयोग किसी भी कानून या नीति-नियमकी दृष्टिसे हिंसात्मक कार्य नहीं माना जा सकता। भारतने कभी लंकाशायरके भरण-पोषणका जिम्मा अपने ऊपर नहीं लिया है। यदि मदिरालयों तथा वेश्यालयोंमें जानेवाले बिना कोई सूचना दिये उनमें जाना बन्द कर दें, चाहे इस आत्मवर्जना के फलस्वरूप उक्त आलयोंके संचालक भूखों मरने लगें तो भी वे इस आत्मसंयमके लिए बधाईके पात्र होंगे और उनके मालिकोंके हितेच्छु भी माने जायेंगे। इसी प्रकार यदि साहूकारोंके आसामी उनसे ऋण लेना बन्द कर दें और इससे साहूकार भूखों मरने लगें तो उनके आसामी ऋण लेना बन्द करनेके कारण हिंसक नहीं माने जा सकते। किन्तु यदि वे दुर्भावना अथवा द्वेषके कारण और बिना किसी न्यायसंगत कारणके एक साहूकारको छोड़कर दूसरेके आसामी बन जायें तो वे हिंसक माने जा सकते हैं।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब नियमके आधीन होनेसे इनकार करना अधिकार और कर्त्तव्य बन जाये तब असहयोग हिंसा नहीं होता, चाहे उसके प्रयोगके कारण कुछ लोगोंको कष्ट भी हो। जब मात्र अन्यायकर्त्ताके भलेके लिए ही असह्योगका आश्रय लिया जाये, तब वह प्रेमका कार्य होगा। भारतीय असहयोग अधिकार और कर्त्तव्य