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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
[पुनश्च :] रामदासका स्वास्थ्य ठीक है।

'द मौलानाज रेजिगनेशन फ्राम दी प्रेसीडेंटशिप' और 'वाज आई पार्शियल?' लेख मुझे पसन्द नहीं हैं। यदि वे तुम्हें भी पसन्द न हों तो उन्हें निकाल देना। इनके बिना भी पर्याप्त लेख-सामग्री है।

मूल गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ११४२०) की फोटो नकलसे।
 

३२५. कौंसिल प्रवेशके सम्बन्धमें विचार[१]

[११ अप्रैल, १९२४ के पूर्व]

व्यवस्थापिका सभाओंमें जाना और फिर वहाँ असहयोग करना उचित है या नहीं, इस सम्बन्धमें पण्डित मोतीलालजी और मेरे बीच लम्बी बातचीत हुई। मुझे दूसरे स्वराज्यवादी मित्रोंसे भी बातचीत करनेका सुअवसर मिला। किन्तु पूरा प्रयत्न करनेपर भी असहयोग-नीतिके अनुकूल मुझे कोई ऐसा आधार नहीं मिल पाया जिसपर हम सब सहमत हो जाते। मैं अपनी इस रायपर कायम हूँ कि कौंसिल प्रवेशकी असहयोगसे संगति नहीं बैठती। स्वराज्यवादियों और मेरे बीच प्रामाणिक और मौलिक मतभेद है। मैं यह बात उनके गले नहीं उतार सका कि चाहे जितना घटाकर कहा जाये व्यवस्थापिका सभाओं में जानेकी अपेक्षा उनसे बाहर बने रहना देशके लिए कहीं अधिक लाभप्रद है। किन्तु मैं मानता हूँ कि जबतक उनकी राय भिन्न है, उन्हें निस्सन्देह कौंसिलोंमें जाना चाहिए। हम सबके लिए यही सर्वोत्तम मार्ग है। यदि उन्हें सफलता मिलती है और देशको लाभ पहुँचता है तो ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाणसे मेरे जैसे सच्चे शंकाशील लोगोंको अपनी भूलकी प्रतीति हुए बिना न रहेगी; और इसी तरह मैं यह भी जानता हूँ कि यदि अनुभवसे उनकी धारणा झूठी साबित हुई तो उनमें इतनी देशभक्ति अवश्य है कि वे अपना कदम पीछे हटा लेंगे। इसलिए मैं उनके मार्ग में किसी तरहका अड़ंगा डालने में सहायक नहीं होना चाहता। और जिस योजनामें मेरा विश्वास नहीं है उसमें मैं सक्रिय सहायता नहीं दे सकता।

मेरा मतभेद कौंसिलोंमें काम करनेके तरीके के बारेमें भी है। मैं कौंसिलोंमें जाकर अड़ंगा लगाने की नीतिमें विश्वास नहीं रखता। मैं किसी व्यवस्थापिका सभा में केवल तभी जाऊँगा जब मैं यह देखूँ कि मैं उसका उपयोग किसी-न-किसी लाभदायक रूपमें कर सकता हूँ, इसलिए यदि मैं कौंसिलों में जाऊँगा तो मैं वहाँ कांग्रेसके

  1. यह गांधीजीके हाथका लिखा है और इसमें उन्होंने कई जगह संशोधन किये हैं। कांग्रेस जन व्यवस्थापिका परिषदों और असेम्बलीमें वापस जायें या न जायें इस उलझन भरे प्रश्नपर स्पष्टतः ये गांधीजीके प्रथम लिखित विचार हैं। गांधीजीने इस विवादास्पद विषयपर अपना यह मत २९ मार्चसे लेकर ५ अप्रैल तक सप्ताह भर बम्बई में पं॰ मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय और अन्य स्वराज्यवादी नेताओंसे बातचीत करनेके बाद स्थिर किया था। सम्भव है गांधीजीने ये विचार ११ अप्रैलके अपने कौंसिल-प्रवेश सम्बन्धी मसविदेको, जो अगले शीर्षकमें दिया गया है, तैयार करनेसे पूर्व लिखे हों।