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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसी मतकी रक्षाके लिए रौलट कानूनके विरुद्ध किये गये आन्दोलनके दिनों में अमृतसर, वीरमगाँव और अहमदाबादमें आग लगाने और लोगोंकी जान लेनेकी घटनाएँ होनेके बाद और असहयोग आन्दोलनके दिनोंमें बम्बई और चौरीचौरामें उपद्रवी भीड़ों द्वारा हिंसा किये जानेके बाद सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया गया था। मैंने जब-जब सविनय अवज्ञा स्थगित करनेकी सलाह दी है तब-तब राष्ट्रने उसे स्वीकार किया है और यदि उसने यह स्वीकृति सचाईसे दी हो तो मेरा यह खयाल उचित ही है कि राष्ट्रने अहिंसाको पूरे अर्थोंमें समझ लिया है और स्वीकार कर लिया है, किन्तु उसका प्रयोग जिस उद्देश्यको ध्यान में रखकर उसे स्वीकार किया गया है, उसी तक सीमित है।[१]

कौंसिल प्रवेश के सम्बन्धमें चूँकि मेरे ऐसे विचार हैं, इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि मैं स्वराज्यवादियोंको अपना कदम वापस लेने और असेम्बली और कौंसिलोंको त्यागनेके लिए तैयार कर सकता तो अवश्य तैयार करता। किन्तु यदि अपने उठाये गये कदमकी उपयोगिताके सम्बन्धमें वे मुझे विश्वास नहीं दिला सके तो मैं भी उन्हें अपना दृष्टिकोण नहीं समझा सका हूँ। लेकिन उनके पल्ले कुछ शानदार जीतें हैं और वे औचित्यपूर्वक उनका उल्लेख कर सकते हैं। मैं रिहा किया गया हूँ, खद्दर ऊँची-ऊँची जगहमें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, और अवरोधने सरकारको वैध प्रणालीका त्याग करके प्रमाणपत्रोंका सहारा लेकर कानून बनानेपर विवश किया है। यदि कांग्रेसने गयामें कौंसिल प्रवेशका पूरा समर्थन किया होता तो स्वराज्य दल अपना संगठन इतने प्रभावकारी रूपमें कर सका होता कि गैर-स्वराज्यवादियोंको चुनावमें एक भी स्थान न मिल पाता और तब स्वराज्य दलकी यह अवरोध सम्बन्धी सफलता पूर्ण हो जाती। यदि मैं कहूँ कि ये सभी बातें असहयोगके पहले भी की जा सकती थीं तो स्पष्ट ही मेरा वह कहना व्यर्थ होगा। यदि आपका उद्देश्य कैदियोंको रिहा कराना होता तो आप अकेले गांधीको ही नहीं बल्कि हसरत मोहानी- जैसे अनेक लोगोंको और पंजाब के समस्त कैदियोंको भी रिहा करा सकते थे। यह कहना भी बेकार है कि खद्दरको ऊँची जगह आसीन कर देना और इतने नरमदलियों को कौंसिलोंसे बाहर रखना भी कोई बड़ी बात नहीं है। सरकारका तन्त्र नरमदलियों के बिना और अवरोध किये जानेपर भी बिना किसी बाधा के चलता रहता है। यह तर्क देने में भी कोई ज्यादा फायदा नहीं है कि कौंसिलोंमें प्रवेश करनेसे जो कुछ लाभ होना सम्भव है वह उचित आन्दोलन करके १९२० में भी प्राप्त किया जा सकता था। सरकार चाहे स्वीकार न करे, फिर भी यह बहुत अधिक सम्भव है कि सुधारोंकी दिशामें कुछ सुखद प्रगति होगी; किन्तु मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हमें जो कुछ भी दिया जायेगा वह, कांग्रेसका कार्यक्रम जिस उद्देश्यको ध्यान में रखकर बनाया गया था और अब बनाया गया है उसकी अपेक्षा बहुत कम होगा।[२]

  1. वक्तव्यके अन्तिम मसविदेमें अहिंसाके प्रश्नका यह विवेचन नहीं आया है।
  2. असहयोग और स्वराज्यवादियोंके कार्यक्रमके सापेक्ष प्रभावोंकी यह तुलना अन्तिम मसविदेमें से निकाल दी गई है।