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कौंसिल-प्रवेशसे सम्बन्धित वक्तव्यका पहला मसविदा


यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि स्वराज्यवादियोंका समाधान किसी तर्कसे किया जा सकता है। उनमें से बहुतसे लोग अत्यन्त योग्य, अनुभवी और सच्चे देशभक्त हैं। वे इतना विरोध किये जानेपर भी व्यवस्थापिका सभाओं में बिना पूरी तरह सोचे-समझे प्रविष्ट नहीं हुए हैं और उनसे यह आशा भी नहीं की जानी चाहिए कि जबतक उन्हें अनुभवसे कार्यक्रमकी व्यर्थताका विश्वास न हो जायेगा तबतक वे अपनी नीतिको त्याग देंगे। इसलिए देशके सम्मुख प्रश्न स्वराज्यवादियोंके विचारों और मेरे विचारोंकी जाँच-पड़ताल करनेका और उनकी अच्छाई और बुराई बतानेका नहीं है। प्रश्न यह है कि कौंसिल प्रवेश तो हो चुका; अब उसके विषयमें करना क्या चाहिए। स्वराज्यवादियोंके कार्यक्रमका अपरिवर्तनवादी—मानसिक ही सही—विरोध करते रहें अथवा तटस्थ रहें और जहाँ सम्भव हो एवं जहाँ वह उनके सिद्धान्तोंसे मेल खाता हो, वहाँ उनको सहायता भी दें। दिल्ली और कोकोनाडा के प्रस्तावों में ऐसे कांग्रेसजनोंको जिन्हें कौंसिल- प्रवेशमें कोई सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं है, इसकी अनुमति दे दी गई है कि यदि वे चाहें तो कौंसिलों और असेम्बलीमें जा सकते हैं। इसलिए मेरी रायमें स्वराज्यवादियोंके लिए व्यवस्थापिका सभाओं में प्रवेश करना और अपरिवर्तनवादियोंकी ओरसे पूर्ण तटस्थताकी अपेक्षा करना उचित है। अवरोधका आश्रय लेना भी उनके लिए ठीक है, क्योंकि यह उनकी नीति ही है और कांग्रेसने उनके कौंसिल प्रवेशकी कोई शर्त नहीं रखी है।

जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मैं तो अहिंसामें सोलहों आने विश्वास करनेवाला आदमी हूँ। इस कारण मेरी स्थिति सन् १९१९ में अमृतसरमें जैसी थी वैसी ही बनी हुई है। मैं कौंसिलोंमें पहुँचकर किसी भी रूप अथवा प्रकारका अवरोध पैदा करनेमें विश्वास नहीं करता। मेरी समझमें तो यह समयकी बरबादीके सिवा और कुछ नहीं है। तो कौंसिलोंमें केवल तभी प्रवेश करना चाहता हूँ जब मुझे यह विश्वास हो कि मैं उनका उपयोग देशकी उन्नतिके लिए कर सकता हूँ। इसके लिए मुझे इस तन्त्रमें और जिनके हाथमें वह है उन अधिकारियोंमें विश्वास रखना आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि मैं उस तन्त्रका अंग भी बना रहूँ और उसे नष्ट भी करना चाहूँ।

इसलिए कौंसिल-प्रवेशको आवश्यक बुराई मानते हुए यदि मैं इनमें से किसी संस्थाका सदस्य हो जाऊँ तो मुझे वहाँ कांग्रेसके रचनात्मक कार्यक्रमको पूरा करना चाहिए। दो काम तो तत्काल किये जा सकते हैं : एक प्रस्ताव पास करके केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारोंसे अनुरोध किया जाये कि वे अपने समस्त विभागोंकी जरूरत पूरी करने के लिए केवल हाथकते सूतकी और हाथबुनी खादी ही खरीदें और दूसरे प्रस्तावमें शराब और नशीली चीजोंसे होनेवाली पूरी आयको समाप्त करने और उससे जो घाटा हो उसको पूरा करनेके लिए सेना के खर्च में उतनी ही कमी करनेकी माँग की जाये। सम्भव है सरकार इन प्रस्तावोंकी भी परवाह न करे। यदि सरकार इन प्रस्तावोंपर अमल करनेसे इनकार कर दे तो क्या किया जाना चाहिए, यह कहने में मैं असमर्थ हूँ। सचाई यह है कि चूँकि मेरी मनःस्थिति कौंसिलोंके अनुरूप नहीं है, इसलिए इस सम्बन्धमें इससे अधिक कुछ कहना मेरे लिए कठिन है।

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८७१३) की फोटो-नकलसे।