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नागरिकों और उनके प्रतिनिधियों की लाज स्वयं नागरिकोंके ही हाथमें है। कोई भी व्यक्ति किसीको उसकी मरजीके खिलाफ अपने वशमें नहीं कर सकता। यह अटल नियम है। हाँ, यह सही है कि हजारों मामलोंमें हमें प्रतीत ऐसा ही होता है कि लोग बल प्रयोगके सामने लाचार होकर काम कर रहे। यदि कोई मौतका डर दिखाकर मुझसे कोई काम कराता है तो हम यहीं मानते हैं यह जबरदस्ती है। लेकिन यदि मैं मरनेपर उतारू हो जाऊँ तो मुझसे कौन क्या करा सकता है? इसलिए किसीका भी यह कहना कि अमुक काम उसने अपनी मरजी के खिलाफ किया है माना नहीं जा सकता। किन्तु रूढ़ि ऐसी अवश्य है कि जब कोई व्यक्ति शरीर-बलके सामने लाचार होकर कुछ करता है तो कहा यही जाता है कि उसने वह काम अपनी इच्छाके विरुद्ध किया। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। आत्माको यदि कोई बाँध या मुक्त कर सकता है तो वह स्वयं आत्मा ही है।

झगड़ा तो सिर्फ शिक्षा के सवालपर ही था। प्रकाश व्यवस्था, टट्टी-पानी आदिके मामले में नगरपालिका सरकारकी इच्छा के अनुकूल ही चलना चाहती थी। गलियों और सड़कों पर प्रकाशकी व्यवस्था सरकार करे, इसमें हमारा कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ जाता था। लेकिन यह चीज हमें बरदाश्त नहीं थी कि हमारे बालकोंके हृदयमन्दिरमें ज्ञानकी ज्योति भी सरकार ही जलाये और उनके मस्तिष्ककी सफाई भी वही करे। यह ज्योति, यह सफाई स्वाभाविक नहीं थी। इसलिए हमने शिक्षाको राष्ट्रीय रूप दिया। इस विषयपर हमारे और सरकारके बीच मतैक्य नहीं हो पाया और वैर हो गया। यह एक ऐसी बात है जिसमें नागरिक अपनेको सर्वोपरि सिद्ध कर सकते हैं। सरकार सड़कों को साफ करना चाहे तो करे; हमें सड़कोंको साफ करनेके लिए उसको सौंपना नहीं है, लेकिन बच्चोंको तो जब हम अपनी इच्छासे सरकारी स्कूलों में भेजेंगे तभी वह उन्हें पढ़ा पायेगी। इसलिए शिक्षाके सम्बन्धमें नागरिक लोग इच्छा-भर करनेसे अपनी स्वतन्त्रताकी रक्षा पूरी तरह कर सकते हैं।

दिल्ली से लौटनेपर[१] मैंने सुना कि लगभग सात हजार बालकोंके लिए कोई पैंतीस राष्ट्रीय शालाएँ तो खोली जा चुकी हैं तथा अभी ऐसी और भी शालाएँ खोलनेकी व्यवस्था की जा रही है। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। मुझे उम्मीद है कि समिति अर्थात् सरकारके स्कूलोंमें एक भी बालक या बालिका नहीं रह जायेगी।

और यदि नागरिक लोग चाहें तो एक भी बालक या बालिका सरकारी स्कूलमें न जाये। कुछ काम तो सिर्फ हमारे आलस्य या उदासीनता के कारण ही बिगड़ जाते हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि नागरिक लोग कमसे कम अपने बच्चोंकी ओरसे तो उदासीन नहीं ही रहेंगे। उसमें तो सिर्फ पैसा जुटाने और अच्छी शिक्षाकी व्यवस्था कर देनेकी ही जरूरत है। शिक्षाका नियन्त्रण अपने हाथमें रखें तो बच्चोंको कमसेकम खर्चमें अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जा सकती है।

जिन माता-पिताओंने अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंसे निकाल लिया है, जिन लोगोंने अपने मकान दिये हैं और जिन शिक्षकोंने सरकारी नौकरी छोड़ दी है, उन्हें

  1. गांधीजी १ मार्चको दिल्लीसे अहमदाबाद लौटे थे।