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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और प्रेम-जैसी कोई वस्तु संसारमें है अथवा नहीं? यदि है तो जो पुरुष और स्त्री भूखसे छीज छीजकर मर रहे हैं और जिनके पास तन ढकनेको लगभग वस्त्र है ही नहीं, क्या मैं उनसे यह कह दूँ कि आखिरकार आप अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं? क्या उनके प्रति मेरा कोई फर्ज नहीं है? 'हमको पराई क्या पड़ी', क्या यही आदमीका शेवा है? ऐसी बात तो कोई अपने कलेजेपर पत्थर रखकर ही कह सकता है। यह सब लिखते हुए मेरा मन काँप रहा है। और यदि कर्म के सिद्धान्तका तात्पर्य यही है तो मैं उसका विरोध करूँगा। परन्तु सौभाग्यसे मुझे उस न्यायसे कुछ और ही सबक मिला है। एक ओर तो वह धैर्यकी शिक्षा देता है और दूसरी ओर यह अलंघ्य आदेश देता है कि वर्तमानकी पुनर्व्यवस्था करके अतीतके प्रभावको समाप्त कर दो। यकीन मानिए, जिन राजनीतिज्ञोंको आप अविवेकी मान बैठी हैं, वे वैसे अविवेकी नहीं हैं, जैसा आप सोचती हैं। जैसा कि आप स्वयं कहती हैं, आप युवती हैं। मैं इस आध्यात्मिक विषय के प्रति आपके उत्साहकी सराहना करता हूँ। तो क्या मैं एक वयोवृद्धकी हैसियतसे आपसे यह कह सकता हूँ कि आध्यात्मिकता बुराईको सिर झुकाकर स्वीकार करने के सिद्धान्तको अस्वीकार करती है? आपने भारत के अध्यात्म-भावको जितना समझा है, उससे वह कहीं अधिक सशक्त है। जरा धीरज और गहराईसे विचार कीजिए।

आपका भाई

कुमारी एलिजाबेथ शार्प
श्रीकृष्ण निवास
लीम्बडी
(काठियावाड़)

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८७२२) की फोटो-नकलसे।
 

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एक और गलतफ

मौलाना मुहम्मद अली के सम्बन्ध में जो गलतफहमी हुई थी उसका स्पष्टीकरण मैं अपने एक अग्रलेख में कर चुका हूँ। इसी तरहकी एक अन्य गलतफहमी हकीम अजमलखाँके तिब्बिया कालेज में हुई है। तिब्बिया कालेज में मेरे छूटने की खुशी में एक सभा हुई थी। उसमें एक हिन्दू विद्यार्थीने ईसा मसीह के साथ मेरी तुलना की। एक अन्य विद्यार्थीने इसपर आपत्ति की और कहा कि महान् पैगम्बरोंके साथ एक सामान्य मनुष्यकी तुलना करना उचित नहीं है। इस बातसे प्रथम विद्यार्थीको दुःख हुआ। क्योंकि इसमें उसे मेरा अपमान जान पड़ा इसपर जिस विद्यार्थीने तुलनाका विरोध किया था उसने अपना दृष्टिबिन्दु समझाया और क्षमा माँगी। किसी समाचारपत्रने इसे तिलका ताड़ ही बना दिया।