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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस सिद्धान्तपर अमल करने में जो पहल करेगा वह विजयी होगा। यदि दोनों एक-दूसरेकी राह देखते रहेंगे तो अन्तमें दोनों जहाँ के तहाँ ही रह जायेंगे। 'पहले आप' करते-करते गाड़ी निकल जानेका भय है।

'नवजीवन' का नया कोड-पत्र

'नवजीवन' का एक सामान्य कोड-पत्र तो समय-समयपर निकलता ही रहता है। अब शिक्षा के सम्बन्ध में एक विशेष कोड-पत्र प्रकाशित किया जायेगा। इसकी सूचना इस अंक में अन्यत्र देखनेको मिलेगी। शिक्षा सम्बन्धी यह विशेष कोड-पत्र हर महीने तीसरे शनिवारको प्रकाशित होगा अर्थात् उसका प्रथम अंक इस महीनेकी १९ वीं तारीखको प्रकाशित होगा। इस सूचना में पाठक देखेंगे कि स्वतन्त्र शिक्षा अंक प्रकाशित करने की बजाय किसी भी समाचारपत्रके परिशिष्ट के रूप में शिक्षा अंक प्रकाशित करने की सलाह देनेवाला मैं ही हूँ। गुजरात में बहुत सारे अखबार निकलने लगे हैं, पुस्तकें भी बहुत प्रकाशित होती हैं। पाठकोंकी संख्या में भी अच्छी वृद्धि हुई कही जा सकती है। जहाँ एक हजार ग्राहकों की संख्या सन्तोषप्रद मानी जाती थी, वहाँ अब तीन-चार हजार ग्राहकों की संख्या एक सामान्य बात हो गई है। इस तरह गुजरातियों में पढ़ने की अभिरुचि में वृद्धि हुई है और यह चीज निश्चय ही स्वागत के योग्य है। लेकिन उसी मात्रा में लेखकों और अखबार चलानेवालोंका उत्तरदायित्व भी बढ़ गया है। इस प्रसंगमें हमें दो बड़े सवालोंका निर्णय करना है : जनताके सम्मुख किस तरह के लेख रखे जायें और उन्हें किस तरह पेश किया जाये? पाठकवर्गको आज जो आदत पड़ जायेगी उसके स्थायी हो जानेकी सम्भावना है। जो बात बच्चोंपर लागू होती है, वही बड़ोंपर भी लागू होती है। बड़े लोग भी, जहाँतक नये अनुभव- का प्रश्न है, ठीक बच्चोंकी ही स्थिति में हैं। बूढ़ों को भी यदि कोई नई वस्तु पसन्द आ जाये और उनको उसकी आदत पड़ जाये तो उसमें वे बच्चोंका-सा आनन्द लेंगे और बादमें कदाचित् वह अनुचित सिद्ध हो तो भी उसे छोड़ते हुए उन्हें दुःख होगा। तात्पर्य यह कि गुजरातियों में पढ़नेकी रुचि में जो वृद्धि हुई है उसे अगर निर्दोष मोड़ न दिया गया तो अन्तमें उससे हानि होनेकी आशंका है। अतएव लेखकोंको अपनी कलमपर अंकुश रखना चाहिए, इस बातका ज्ञान भी मेरे संकोचका एक कारण है। कोई कहेगा कि शिक्षा-अंकमें तो ऐसा दोष नहीं आयेगा। लेकिन शिक्षाकी पद्धतिकी क्या कोई सीमा है? मैं यह बात माननेवालों में नहीं हूँ कि समस्त पद्धतियाँ अच्छी ही होती हैं। काल, स्थान और शिष्यवर्गका विचार किये बिना रची गई पद्धतिमें बहुतसे दोष होने की सम्भावना है। इसलिए कोई निश्चयपूर्वक ऐसा नहीं कह सकता कि इस क्षेत्रमें कार्य करनेवाले निरंकुश हो सकते हैं।

मेरे संकोचका दूसरा कारण पाठकोंकी जेबको लेकर है। पाठकोंपर स्वेच्छाकरका बोझ भी हृदसे ज्यादा नहीं पड़ना चाहिए। समस्त अखबारों और पुस्तकों आदिका प्रचार भी केवल इस नवोत्पन्न पाठकवर्गमें ही होगा। और मुझे भय है, बहुत अधिक बोझ पड़ने से पाठकों की पढ़नेकी इच्छा ही नष्ट हो जायेगी।