पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/४९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५९
मौलाना मुहम्मद अलीपर इलजाम

क्या यह हुआ कि मुसलमानों को सन्तुष्ट करते हुए उन्होंने हिन्दुओंका दिल दुखाया? यदि मौलानाने पूर्वोक्त बात किसी दूसरी जगह कही होती तो उसकी बिलकुल टीका न हुई होती। हिन्दू अखबारोंने उनके भाषणका विकृत विवरण छापा। उन्होंने लिखा है कि मौलाना व्यभिचारी मुसलमानको 'महात्मा' गांधीसे अच्छा समझते हैं। यहाँ हमने देखा है कि मौलानाने ऐसी कोई बात नहीं कही। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने तो स्वामी श्रद्धानन्दजीके नाम भेजे अपने पत्र में महात्मा गांधीको सारे संसारमें सर्वोत्तम मनुष्य माना है। परन्तु हाँ, उन्होंने महात्माके धर्म-सिद्धान्तको व्यभिचारी मुसलमान के धर्म-सिद्धान्तसे निम्न माना है। इसमें विरोध जरा भी नहीं; सिद्धान्त और सिद्धान्तीमें तो लगभग सारा संसार भेद मानता है।

मेरे कितने ही ईसाई मित्र मुझे बहुत अच्छा आदमी मानते हैं। फिर भी वे अपने धर्मको मेरे धर्मसे श्रेष्ठ मानते हैं, इसलिए हमेशा ईश्वरसे प्रार्थना करते हैं कि मैं ईसाई हो जाऊँ। दक्षिण आफ्रिकाके एक ऐसे मित्रका पत्र मुझे दो-तीन सप्ताह पहले मिला है जिसमें उन्होंने लिखा है:

आपकी रिहाईका समाचार जानकर मुझे बड़ी खुशी हुई। आपके लिए मैं ईश्वरसे प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको सुबुद्धि दे जिससे आप ईसा मसीहको और मुक्ति देनेकी उनकी शक्तिको मानने लगें। यदि आप यह कर सकें तो आपके काम तुरन्त फलीभूत हो जायें।

इस तरह अनेक ईसाई मित्र चाहते हैं कि मैं ईसाई हो जाऊँ।

अच्छा, अधिकांश हिन्दू भी क्या करते हैं? क्या वे अच्छे से अच्छे ईसाई या मुसलमान के धर्म-सिद्धान्तसे अपने धर्म सिद्धान्तको अच्छा नहीं मानते? यदि वे ऐसा न मानते हों तो क्या वे अपनी पुत्रीका विवाह एक अच्छेसे अच्छे मुसलमान या ईसाईसे करेंगे? इतना ही नहीं, वे हिन्दुओंमें भी किसी अच्छेसे अच्छे पुरुषसे नहीं बल्कि अपने सम्प्रदाय या जाति के ही किसी पुरुषके साथ यह सम्बन्ध करेंगे। इससे क्या प्रकट होता है? यही कि वे स्वधर्मको परधर्मसे अच्छा मानते हैं।

मेरी नाकिस रायमें मौलानाने अपनी राय जाहिर करके अपने दिलकी सफाई और अपनी धर्म-श्रद्धाको सिद्ध किया है। मेरी तो उन्होंने दूनी इज्जत की है। एक तो मित्रके रूपमें और दूसरे मनुष्य के रूपमें। उन्होंने मित्रके रूपमें मेरी इज्जत इस तरह की है कि उन्होंने यह माना है कि वे मेरे सम्बन्धमें जो चाहे कहें, मैं उसमें अपना अपमान न मानूंगा और मैं उनके भावको गलत न समझँगा। उन्होंने मनुष्यके रूपमें मेरी इज्जत इस तरह की है कि हम दोनोंके धर्म भिन्न होते हुए और अपने धर्मको मेरे धर्मसे श्रेष्ठ मानते हुए भी वे मुझे सर्वोत्कृष्ट मनुष्य मानते हैं। इसमें कितनी श्रद्धा है? यदि संसार मुझे अच्छा मानता है तो उसके इस वहमको मैं समझ सकता हूँ। परन्तु मेरे निकट रहनेवाले मेरे मित्र, मेरी अनेक कमजोरियोंको देखते हुए भी मुझे सर्वोत्तम मानें, यह कितनी अजीब बात है?

किसी भी मनुष्यको सर्वोत्कृष्ट मानना, मुझे तो बड़ा खतरनाक मालूम होता है। उसके दिलको ईश्वरके सिवा कौन जान सकता है? उस मनुष्यकी बनिस्बत,