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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिसके दिलकी गन्दगी प्रकट होती रहती है, वह मनुष्य अधिक मलिन होना चाहिए जो अपनी गन्दगी छिपी रख सकता है। पहले मनुष्यको तो मुक्ति मिलनेकी सम्भावना है; क्योंकि उसकी गन्दगी प्रकट हो गई अर्थात् उसके निकलनेका रास्ता खुल गया; परन्तु दूसरा मनुष्य तो अपनी गन्दगी अपने दिलके डिब्बेमें बन्द करके उसपर मुहर लगाकर रखता है। उसकी गन्दगी अन्दर ही अन्दर पड़ी रहेगी और उसे जहरीले जन्तुकी तरह नोंच-नोंचकर खायेगी। उसका छुटकारा इस जन्ममें असम्भव है। इसीसे शास्त्रोंने सत्यको सर्वोपरि माना है, इसीसे शास्त्रोंने पापको छिपानेका निषेध किया है। यदि हम किसी मनुष्यको सर्वोपरि मान सकते हों तो इसका निश्चय उसकी मृत्युके बाद ही किया जा सकता है।

मैं खुद तो अपना विश्वास नहीं कर सकता। मुझे दूसरेका विश्वास करना बहुत आसान मालूम होता है। यदि ऐसा करते हुए मुझे धोखा हो तो इससे मेरी कुछ आर्थिक हानि हो सकती है और दुनिया मुझे भोला-भाला कह सकती है; परन्तु यदि मैं अपना विश्वास करके गाफिल रहूँ तो मेरा नाश ही हो जाये। पाठको, इस मौकेपर आपसे यह भी कह देता हूँ कि एक बार तो मैं अपना विश्वास करके डूबते-डूबते ईश्वर- कृपासे ही बचा हूँ। दूसरी बार मुझे मेरे एक व्यभिचारी मित्रने बचाया। वे खुद तो बचनेकी हालत में नहीं थे परन्तु वे मुझे निर्मल समझते थे। अतः यह समझकर कि इसे तो इस पापमें हरगिज न पड़ना चाहिए उन्होंने मुझे मोह-निद्रासे जाग्रत कर दिया। हम दूसरेकी चौकीदारी करने या दूसरेका काजी बननेकी बनिस्बत खुद अपनी चौकीदारी करें तो हम खुद अपनी रक्षा कर लें और संसारको भी अपने अन्याय से बचा लें। इसीसे स्वराज्यकी सच्ची व्याख्या यह है, स्वराज्य उस राज्यको कहते हैं जो खुद अपनेपर किया जाता है।" जिसने इसे प्राप्त कर लिया उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया। "आप भला तो जग भला" इस कहावत में बहुत-कुछ अर्थ समाया हुआ है।

प्रस्तुत विषयको छोड़कर मैं गूढ़ चर्चामें नहीं चला गया हूँ। बल्कि यह बात इसी विषय से सम्बन्ध रखती है। मित्र लोग जब मुझे सर्वोत्कृष्ट मानते हैं तब मैं काँप जाता हूँ। यदि मैं खुद ऐसा मानने लगूं तो मेरा पतन हुए बिना न रहे, क्योंकि मुझे तो अभी बहुत ऊँचा उठना बाकी है। मेरी आकांक्षाकी सीमा नहीं है। मुझे अभी असंख्य शत्रुओं को जीतना है। ज्यों-ज्यों मैं गहराईसे विचार करता हूँ त्यों-त्यों मुझे अपनी खामियां दिखती जाती हैं। जब यह देखता हूँ तब मेरे मनमें विचार उठता है कि सचमुच सर्वोत्कृष्ट मनुष्य कैसा होता होगा? हम यह विचार करते हुए मेरे मनमें मोक्षकी और उसके द्वारा मिलनेवाली आत्यन्तिक आनन्दकी कुछ कल्पना होती है। उस समय मुझे इस बातकी झलक दिखाई देती है कि ईश-तत्त्व क्या हो सकता है? अब पाठक शायद यह समझ सकें कि मौलाना साहबने मुझे सर्वोत्कृष्ट मानकर मेरी कितनी इज्जत की है। उनके इस कथनका अर्थ क्या है, यह बात पाठकको उनका पत्र पढ़नेपर अधिक अच्छी तरह मालूम होगी। उसका तरजुमा में इसी अंकमें देता हूँ।[१]

  1. देखिए परिशिष्ट १३ (क)।