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सत्याग्रह और समाज-सुधार


अब वह प्रेममय असहयोग आरम्भ कर सकता है। प्रेममय असहयोगका मतलब है तमाम हकोंका त्याग, कर्त्तव्योंका त्याग नहीं। जातिमें इस गरीब सेवकके हक क्या हैं? जाति-भोजन और विवाह-सम्बन्ध। इन दोनों हकोंका वह नम्रतापूर्वक त्याग कर दे। इतना करनेपर वह अपना कर्त्तव्य पूरा कर चुका। यदि जातिके पंच उसे काँटेकी तरह चुनकर फेंक दें, मदकी मस्ती में यह समझकर कि "चलो एक पत्तल कम हुई, एक लड़की माँगनेवाला कम हुआ", उसे बिरादरीकी सूचीसे खारिज कर दें तो वह गरीब सेवक निराश न होते हुए यह श्रद्धा रखे कि उसने जो शुद्ध बीज बोया है, उससे महान् वृक्ष पैदा होगा। अपना कर्तव्य पूरा कर चुकने के बाद वह गा सकता है :" "कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।", उसके पहले नहीं।

यह गरीब तपस्वी अब वनवासी हो गया है। यदि वह ब्रह्मचारी है तो उसने यह भीष्म प्रतिज्ञा कर ली है कि जबतक जातिमें यह बुराई मौजूद है तबतक वह ब्रह्मचारी रहेगा। यदि वह विवाहित है तो अपनी पत्नीसे मित्रका नाता रखेगा। यदि बाल-बच्चे हों तो उन्हें भी ब्रह्मचर्यका पालन करने की नसीहत देगा। जातिवालों से मदद न माँगनी पड़े और दूसरी जगह हाथ न फैलाना पड़े, इसलिए वह कमसे कम परिग्रह- माल असबाब रखेगा। इस प्रकार एक संन्यासीकी तरह जीवन व्यतीत करना ही उसका वनवास है। प्रेममय असहयोग में स्वच्छन्दताके लिए अवकाश ही नहीं है, वहाँ तो संयमकी ही शोभा है। बोये हुए बीजको उसे अब संयम रूपी पानी देना है। जो यह विचार करता है कि "यदि मेरे बच्चोंका विवाह न होगा तो मैं उनका विवाह दूसरी जातिमें कर दूँगा या और कहीं भोजनका आनन्द लिया करूँगा," वह संयमी या असहयोगी नहीं; वह तो मिथ्याचारी है। संयमी असहयोगी तो अपनी जातिके ही गाँव में रहकर तपश्चर्या करेगा। अहिंसा के सान्निध्य में वैर-त्याग[१] कहा गया है। वह त्यागी हिमालय में बैठकर पंचोंके प्रति अहिंसापालनका दावा करते हुए पंचोंके हृदयको द्रवित करनेकी आशा नहीं रख सकता। पंचोंने जो उसका अनादर किया है उसका एक कारण यह भी है कि उन्होंने उसे एक अविवेकी और उद्धत युवक मान लिया है, परन्तु उसे यह साबित करना तो अभी बाकी है कि वह गरीब और नव युवक होते हुए भी उद्धत या अविवेकी नहीं, बल्कि नम्र और विवेकी है।

इस प्रकार कार्य करते हुए और सेवाके मौकोंपर जाति-भाइयोंकी सेवा करते हुए, परन्तु फिर भी उसके बदलेकी आशा न रखते हुए वह देखेगा कि इस सुधार-कार्यमें दूसरे लोग भी शामिल होंगे। वे चाहे असहयोग न करें परन्तु उनकी हमदर्दी उसके साथ रहेगी, क्योंकि जिस प्रकार हम अपने सहयोगी भाइयोंको अपने त्याग और ज्ञानके घमण्डमें कोसते हैं उस प्रकार हमारा वह संयमी युवक अपने जातिवालों को यह सोचकर कि वे उसका साथ नहीं देते हैं, अथवा विचारमें तो साथ देते हैं पर असहयोग नहीं करते, गालियाँ नहीं देगा बल्कि उनके प्रति प्रेमभाव रखकर ही उनके मनको जीतेगा। वह नित्य इस बातका अनुभव करेगा कि प्रेम तो एक पारसमणि है।

  1. "अहिंसा प्रतिष्ठायाँ तत्सन्निधौ वैरत्यागः"—योगदर्शन।