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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मिल रहे हैं उनसे मुझे लगता है कि इस आन्दोलनको जो नेतृत्व चाहिए, वह मद्रास अहाते से मिल जायेगा। मैं समझता हूँ कि भारत-भरके नेतागण वहाँ जानेके लिए समय निकालकर प्रत्यक्ष रूपसे इस आन्दोलनपर अपनी शक्तियाँ केन्द्रित नहीं कर सकेंगे। परन्तु भारतके सभी समाचारपत्र इस आन्दोलनको समुचित प्रमुखता अवश्य दे सकते हैं। मुझे यह देखकर प्रसन्नता होती है कि इसे ऐसी प्रमुखता दी भी जा रही है। मेरा खयाल है कि इस नैतिक समर्थनके अलावा अखिल भारतीय पैमानेपर इसके लिए कोई प्रयत्न किया भी नहीं जा सकता और यदि इस आन्दोलनका स्वरूप लगातार शुद्ध बना रहा और अहिंसात्मक भी, तो अन्तमें इसे जनताका समर्थन अवश्य मिलेगा।

जो थोड़े-बहुत नेता वहाँ जायेंगे, यदि वे भी गिरफ्तार कर लिये जायें तो आप नेताओंकी इस कमीको किस प्रकार पूरा करेंगे? महात्माजी ने उत्तर दिया :

मेरे पास एक पत्र आया है। उससे प्रकट होता है कि आन्दोलन इतना आगे बढ़ चुका है कि यदि सबके सब नेता गिरफ्तार कर लिये जायें तो भी स्वयंसेवक लोग सत्याग्रह चलाते रहेंगे। मैं यह सुझाव भी दूँगा कि कमसे कम एक नेता अपनेको बचाये रखे और गिरफ्तार होनेका लोभ संवरण करते हुए आन्दोलनका संचालन करता रहे।

फिर महात्माजीसे यह प्रश्न पूछा गया : "मान लीजिए कि जो नेता अपनेको इस तरह गिरफ्तारी से बचाकर रखना चाहता है, यदि वह भी गिरफ्तार हो जाये या उसे ऐसा लगे कि अब गिरफ्तार हो ही जाना चाहिए तो ऐसी स्थितिमें क्या बिना किसी नेता आन्दोलन चलाया जा सकता है?" महात्माजीने उत्तरमें कहा :

मेरे विचारसे सत्याग्रह एक ऐसा आन्दोलन है जिसे अमुक मंजिल पार कर लेने के पश्चात् नेता के बिना चलाते रहना भी बहुत आसान है। यह इस आन्दोलनका सहज गुण और शक्ति है। कूटनीति या चालबाजीका हम जो अर्थ लगाते हैं, अर्थकी उस दृष्टिसे सत्याग्रहमें इनमें से किसीके लिए कोई स्थान नहीं है। यह मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मार्ग सँकरा हैं, परन्तु साथ ही यह सीधा है, इसलिए सुगम भी है। सिर्फ संकल्पकी जरूरत है; छल-कपटकी कदापि नहीं। स्वयंसेवकोंको फकत इतना ही तो करना है कि वे जिस अधिकारके लिए सत्याग्रह कर रहे हैं वह जबतक नहीं मिल जाता तबतक बस सत्याग्रह करते रहें। यदि विरोधी पक्षके लोग किसी समझौते का प्रस्ताव रखते हैं तो गिरफ्तार किये गये नेता रिहा हो ही जायेंगे। दक्षिण आफ्रिकामें भी तो यही हुआ था। जब लगभग सब नेतागण गिरफ्तार कर लिये गये तब श्री गोखले घबरा उठे और उन्होंने श्री एन्ड्रयूज तथा श्री पियर्सनको दक्षिण आफ्रिका भेजा। इन दोनोंकी सहायता बहुमूल्य थी, परन्तु बलिदानकी शिखाको प्रज्वलित रखने के लिए वह आवश्यक नहीं थी। समझौते के लिए बातचीत चलानेमें[१] ये दोनों अवश्य सहायक हुए, परन्तु असली कष्ट सहन तो आम जनताका ही काम था।

  1. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ३११-३५०।