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भेंट : 'हिन्दू' के प्रतिनिधिसे


इसके बाद हमारे प्रतिनिधिने गांधीजीसे पूछा, "चूंकि यह आन्दोलन एक देशी रियासत में चल रहा है इसलिए वेशमें चल रहे बृहत्तर असहयोग आन्दोलनके अंगके रूपमें इसका महत्व क्या कम नहीं हो जाता?"

मैं यह नहीं मानता कि वाइकोम सत्याग्रह ऐसे किसी अर्थ में असहयोग आन्दोलनका एक अंग है। हाँ, यह आन्दोलन सत्याग्रहका रूप जरूर है, परन्तु असह्योग आन्दोलनसे इसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। सत्याग्रह तो एक शाश्वत सिद्धान्त है। मुझे यकीन है कि इसके पैर अब जम चुके हैं और ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा आप देखेंगे कि इसका उपयोग अनेक प्रकारसे किया जाने लगेगा। मैं 'नवजीवन' में[१] इसके उपयोगकी बात कर चुका हूँ। एक उत्साही समाज-सुधारक सत्याग्रहका उपयोग अपनी जातिकी एक कुप्रथा अर्थात् सबसे ज्यादा पैसा देनेवाले के हाथ कन्याको बेच देनेकी कुप्रथाको हटाने के उद्देश्यसे करना चाहता है। वह अपनी जातिकी बहनोंकी खातिर कष्ट सहनका मार्ग अपनाकर इस अमानवीय प्रथाको बन्द कराना चाहता है। यदि इस मामले में वह सत्याग्रह करता है तो हम इसे असहयोग आन्दोलनका अंग नहीं मान सकते। मुझे ज्ञात है कि इसमें और वाइकोम आन्दोलनमें बहुत बड़ा अन्तर है। वाइकोम आन्दोलन कांग्रेसजनों द्वारा चलाया जा रहा है और उसका असहयोग आन्दोलनके एक पहलू अर्थात् अस्पृश्यतासे सम्बन्ध है। फिर भी मेरे सामने यह स्पष्ट है कि इसे असहयोग आन्दोलनका अंग नहीं कहा जा सकता। वर्तमान परिस्थितियोंमें इस प्रकारका आन्दोलन किसी देशी रियासत में छेड़ा जाना चाहिए या नहीं, इसका निर्णय इस मामलेके गुण-दोष के आधारपर ही करना चाहिए। यदि वाइकोम आन्दोलन देशके उस राजनीतिक आन्दोलनका एक अंग हो जो ब्रिटिश भारतमें चलाया जा रहा है तो मेरे सामने यह बिलकुल स्पष्ट है कि इसे बन्द कर देना चाहिए। व्यक्तिगत रूपसे मैं इस बात के खिलाफ हूँ कि कांग्रेसजन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपसे देशी रियासतोंमें परेशानी पैदा करें, क्योंकि ये स्वयं ब्रिटिश भारतीय प्रजाजनोंसे कुछ अच्छी स्थिति में नहीं हैं। कोई अकेला रेजीडेंट या पोलिटिकल एजेंट ही इन राजाओं और महाराजाओंके होश फाख्ता कर देने के लिए काफी है। ये ब्रिटिश सत्ताधारियोंके छोटेसे दबावके सामने भी टिक नहीं सकते। यह वाइकोम आन्दोलन एक सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन है। इसके पीछे कोई निकटस्थ अथवा दूर-दराजका राजनीतिक उद्देश्य भी नहीं है। इसे त्रावणकोर दरबारके विरुद्ध नहीं बल्कि सिर्फ जमानेसे चले आ रहे पण्डे-पुजारियोंके असह्य पूर्वग्रहके विरुद्ध ही प्रारम्भ किया गया था। जहाँतक मुझे मालूम है, दरबारने इसमें जो हाथ डाला है वह केवल शान्ति कायम रखनेकी खातिर ही। जहाँतक मैं जानता हूँ, सही या गलत, दरबारको यह दहशत हो गई थी कि इन निषिद्ध सड़कोंपर सत्याग्रहियोंकी उपस्थिति के परिणामस्वरूप शान्ति भंग हो जायेगी। यदि महाराजा स्वयं एक सुधारक होते और अस्पृश्यताके प्रबल विरोधी होते तो यह सम्भव था कि वे सत्याग्रहियोंका पक्ष लेते और उन्हें मारपीट या परेशानियोंसे बचाते। परन्तु मुझे यह बताया गया है कि वे अस्पृश्यताको

  1. देखिए "सत्याग्रह और समाज-सुधार", १३-४-१९२४।