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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाया गया। हमें बरामदे में सोनेकी इजाजत मिल गई। कैदियोंके लिए यह सुविधा असाधारण ही कही जायेगी। स्थानकी शान्ति और सम्पूर्ण निस्तब्धता मुझे पसन्द आ गई। दूसरे दिन सवेरे मुझे प्रारम्भिक सुनवाई के लिए अदालतमें ले जाया गया। भाई बैंकर और मैं, दोनोंने निश्चय किया था कि सफाईमें हमें कुछ भी नहीं कहना है, बल्कि सरकारके रास्तेमें कोई विघ्न डालने की बजाय उसकी मदद करनी है। इसलिए पहली सुनवाई जल्दी ही पूरी हो गई। मामला सेशन-सुपुर्द हुआ। और चूँकि हम तुरन्त सम्मन लेने के लिए तैयार थे, इसलिए सुनवाई १८ मार्चको रखी गई। अहमदाबाद के लोग अवसरका महत्त्व समझ गये थे। भाई वल्लभभाई पटेलने सख्त हिदायत दे रखी थी कि अदालतकी इमारत के आसपास लोग इकट्ठे न हों और किसी भी तरह का प्रदर्शन न किया जाये। इसलिए अदालत के अन्दर कुछ चुने हुए दर्शक ही थे। इससे पुलिसको कोई मुश्किल नहीं हुई और मैंने देखा कि अधिकारियोंने भी इसकी सराहना की।

मुकदमे से पहलेका सप्ताह बाहरसे आनेवाले मित्रोंसे मिलने में ही निकल गया। आम तौरपर सबसे मिलनेकी छूट थी और हमें सुपरिटेंडेंटकी मार्फत मनचाहा पत्र-व्यवहार करने की इजाजत थी; शर्त इतनी ही थी कि पत्रोंमें कोई आपत्तिजनक बात न हो। जेलके तमाम नियमोंका हम खुशीसे पालन करते थे, इसलिए जेल-कर्मचारियों के साथ साबरमती जेलके एक हफ्ते के कारावास-कालमें अधिकारियोंसे हमारे सम्बन्ध मधुर रहे। खानबहादुर वाछा तो पूरा खयाल रखते थे और बड़ी नम्रतासे पेश आते थे। परन्तु हर बातमें उनका दब्बूपन जाहिर हुए बिना नहीं रहता था। समय-समयपर वे ऐसा प्रकट करते मालूम होते थे, मानो भारतमें जन्म लेकर उन्होंने कोई अपराध किया है और मानो अनजाने ही यह सूचित करना चाहते थे कि अगर वे यूरोपीय होते तो हमारे लिए और भी बहुत कुछ कर सकते थे। भारतीय होने के कारण हमें नियमानुसार जितनी सुविधाएँ दी जा सकती थीं उतनी देते हुए भी वे कलेक्टर, जेलोंके इंस्पेक्टर जनरल और अपने ऊपरवाले हर अधिकारीसे भयभीत रहते थे। वे जानते थे कि यदि एक ओर वे हों और दूसरी ओर कलेक्टर अथवा जेलोंके इंस्पेक्टर जनरल हों, तो सचिवालयमें उनका समर्थन करनेवाला कोई भी नहीं मिलेगा। अपनी हीनताका खयाल भूतकी तरह उन्हें पग-पगपर सताता रहता था। कर्मचारियोंकी क्या जेलके बाहर और क्या भीतर एक-सी ही हालत देखनेमें आई। कोई भी भारतीय कर्मचारी अपनी बातपर डटे रहने की हिम्मत नहीं करता। सो इसलिए नहीं कि ऐसा करनेकी उसमें शक्ति नहीं होती, परन्तु इसलिए कि उसके मनमें निवृत्त नहीं तो पदच्युत कर दिये जानेका आतंक छाया रहता है। नौकरी बनाये रखने और पद-वृद्धि प्राप्त करने के लिए उसे अधिकारियोंको खुश रखना ही पड़ता है; फिर भले ही उसे इसके लिए गिड़गिड़ाना अथवा सिद्धान्तों का बलिदान करना पड़े। साबरमतीसे यरवदा ले जाये जानेपर कैफियत बिलकुल दूसरी ही पाई। वहाँके यूरोपीय सुपरिटेंडेंटको जेलों के इंस्पेक्टर जनरलका कोई डर ही नहीं था। सचिवालय में इसकी भी उतनी ही पहुँच थी। कलेक्टरको तो वह कुछ गिनता ही न था। अपने भारतीय अफसरोंकी उसे बिलकुल परवाह नहीं थी और इसलिए जब वह अपना फर्ज अदा करना चाहता