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जेलके अनुभव—१

था तब निःशंक होकर करता था और जब कोई कठिन काम सामने आ जाता तो वह उतनी ही बेफिक्रीसे उसे टाल भी जाता था। वह जानता था कि आम तौरपर कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। अपनी इस धारणाके बलपर तरुण यूरोपीय अधिकारी जनता अथवा सरकारके विरोधकी परवाह न करके सही काम कर गुजरता है और कई बार तमाम विनियमों, और आदेशोंको ताकपर रखकर लोकमतका भी तिरस्कार करता पाया जाता है।

मुकदमे और सजाके बारेमें में कुछ नहीं कहना चाहता, क्योंकि पाठक इस विषय में सब कुछ जान चुके हैं। बेशक न्यायाधीश और एडवोकेट-जनरल सहित सब कर्मचारियोंने हमारे प्रति जो सज्जनता दिखाई उसका उल्लेख करना जरूरी है। अदालतके भीतर और अदालत के आसपास बाहर एकत्रित थोड़ेसे लोगोंने जो अद्भुत संयम दिखाया और जो अपार प्रेम प्रकट किया था, वह तो स्मृतिसे कभी मिटाया ही नहीं जा सकता। छः वर्षकी साधारण कैदकी सजाको मैंने हलका ही माना, क्योंकि दण्ड संहिता की धारा १२४ अ के अनुसार कोई कार्य यदि वास्तवमें अपराध ही माना जाये और कानूनका पालन करानेवाला न्यायाधीश उसे अपराध माने बिना न रह सके, तो उस धारा के अनुसार अधिकसे-अधिक सजा देनेका उसे पूरा हक होता है। मेरा अपराध तो बार-बार और जान-बूझकर किया गया था, फिर भी मुझे जो हलकी सजा दी गई उसका कारण यह नहीं माना जा सकता कि न्यायाधीशने मुझपर दया की, क्योंकि दयाकी याचना मैंने नहीं की थी। मैं उसका यही कारण मान सकता हूँ कि धारा १२४ अ उन्हें पसन्द नहीं आती होगी। अमुक कानूनोंके विषयमें अपनी नापसन्दगी कमसे कम सजा देकर प्रकट करनेवाले कई न्यायाधीश मैंने देखे हैं; भले ही अपराध हठपूर्वक और जान-बूझकर किया गया हो। न्यायाधीश द्वारा मुझे जो सजा दी गई उससे कम सजा वह दे ही नहीं सकता था, क्योंकि इसी अपराध के लिए स्व॰ लोकमान्यको छः बरसकी सजा हुई थी।

सजा सुना देने के बाद बाकायदा सजायाफ्ता कैदियोंके रूपमें हम दोनोंको वापस जेल में ले जाया गया, परन्तु हमारे प्रति व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ा। कुछ मित्रोंको तो जेलतक साथ भी आने दिया गया था। विदाईके समयका वातावरण उल्लासपूर्ण था। मेरी पत्नी और अनसूयावहन दोनोंने अलग होते समय बड़ी हिम्मत दिखाई। भाई बैंकर तो सारे समय हँसते ही रहे। और मैंने भी राहत की सांस ली और भगवान्को धन्यवाद दिया कि सब कुछ शान्तिसे निपट गया; अब मुझे साँस लेनेका मौका मिलेगा और साथ-साथ मुझे यह भी लगता ही रहेगा कि मैं देशकी उसी प्रकार सेवा कर रहा हूँ बल्कि उससे भी कुछ ज्यादा ही, जिन दिनों कि मैं एक कोनेसे दूसरे कोनेतक भाग-दौड़ करके बड़ी-बड़ी सभाएँ करके व्याख्यान दिया करता था। मैं चाहता हूँ कि कार्यकर्त्ताओंको यह बात समझा सकूँ कि एक साथी के जेल जानेसे उद्देश्यकी कोई बड़ी हानि नहीं होती। हमने कई बार यह मान्यता जोरदार शब्दोंमें प्रकट की है कि बिलकुल शान्त रहकर भोगा जानेवाला कष्ट, जिस अन्यायके लिए वह भोगा जा रहा हो उसके निवारणका सबसे अमोघ उपाय है। यदि वे अपनी इस मान्यता में विश्वास रखते हैं तो फिर यह निर्विवाद रूपसे सिद्ध हो जाता है कि एक