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३५०. अध्यापक और वकील

आशा है अबतक आप उन लोगोंसे परामर्श कर चुके होंगे जिन्हें दिल्लीमें कांग्रेसके त्रिविध बहिष्कारके प्रस्तावमें परिवर्तन करनेकी आवश्यकता दिखाई दी थी। आप अब किस नतीजेपर पहुँचे हैं? क्या आप उन तीनों बहिष्कारोंको देशके सामने फिर उसी रूपमें रखना चाहते हैं?
कौंसिलोंके बहिष्कारके सम्बन्ध में मुझे कुछ भी कहनेका अधिकार नहीं है। स्वराज्यदलके नेता आपके सामने तमाम तथ्य और दलीलें अच्छी तरह पेश कर चुके होंगे। जो काम वे लोग कर रहे हैं और उनके द्वारा जिसके होनेकी सम्भावना है, वह आपके सामने है। यदि में अपने ही अनुभवसे कहूँ तो विद्यालयों और अदालतोंका बहिष्कार पूरी तरह असफल साबित हुआ है। में अपनी ही मिसाल पेश करता हूँ। यहाँ वो हाई स्कूल हैं जिनमें सभी दरजे हैं और वहाँ सारे विषय पढ़ाये जाते हैं—दोनोंमें पाँच-पाँच सौ विद्यार्थी हैं। लेकिन राष्ट्रीय पाठशाला में सिर्फ ३० ही हैं। विद्यार्थियोंकी तादाद बढ़ानेके लिए हमने तरह-तरहसे कोशिशें कर देखीं पर कुछ न हुआ। मुझे निश्चय हो चुका है कि लोग इस बहिष्कारके लिए तैयार नहीं हैं।
अब तीसरे बहिष्कारकी बात लीजिए। इने-गिने वकीलोंने ही वकालत छोड़ी थी। अब लगभग वे सभी फिरसे वकालत करने लगे हैं। अदालतोंकी शरण लेनेवाले लोगोंकी संख्या तो कभी कम हुई ही नहीं थी। राष्ट्रीय कार्य करनेवालों द्वारा स्थापित पंचायतें भी नहीं पनपीं और अब तो वे मृतप्रायः ही हो गई हैं। इन पंचायतोंके पास ऐसी कोई सत्ता नहीं जिससे वे अपने फैसलेको कार्यान्वित करा सकें और न लोगोंको ही उनके फैसले मान लेनेका प्रशिक्षण दिया गया है। ऐसी हालतमें उन्हें कहने योग्य सफलता मिल ही कैसे सकती है?
कांग्रेसने तो देशके नामपर केवल एक सालके लिए यह सब छोड़ देनेका आदेश दिया था। उसके अनुसार हमने अपनी भावी शिक्षा और अपने भावी जीवनकी आहुति दी। पर अब इस हालतमें हमें करना क्या चाहिए? हमारे तो एक नहीं तीन साल चले गये। लोगोंके लिए हमने राष्ट्रीय पाठशालाएँ स्थापित कीं, परन्तु लोग तो उनकी कुछ परवाह ही नहीं करते; कार्यकर्त्ताओंके बलिदानकी कद्र ही नहीं रह गई है। इतने थोड़े विद्यार्थियोंवाली राष्ट्रीय पाठशालाएँ क्या लोगोंके धन, शक्ति और जीवनका भारी अपव्यय नहीं हैं? क्या इसका यह अर्थ नहीं कि इन कोशिशों और तजवीजोंका समय अभी नहीं आया है? हमारा यह त्याग खुद हमें ही सन्तोष नहीं देता। बहुत बार देशभक्ति और