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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तागेपर हिन्दुस्तान की आजीविकाका आधार है। जबतक हम आजीविकाके प्रश्नको नहीं सुलझा सकते तबतक धर्मके पालनकी अथवा स्वराज्यकी प्राप्तिकी कोई आशा नहीं। रेशमके तारपर कुछ हजार लोगोंका निर्वाह होता है, जब कि सूतके तागेपर करोड़ों व्यक्तियोंकी गुजर होती है और उनके बिना करोड़ों भूखे मरते हैं। रेशमके तारके उद्योगका अगर बिलकुल लोप हो जाये तो इन करोड़ों अथवा हजारों व्यक्तियोंको भूखों मरनेकी नौबत नहीं आयेगी।

खादीका अर्थ

एक भाईने खादीका अर्थ पूछा है। उनका प्रश्न है कि क्या हाथसे कते हुए रेशमी तारकी हाथसे बुनी हुई अतलस खादी में खप सकती है? खादीका तो वस्तुतः एक ही अर्थ है और होना चाहिए—हाथसे कते सूतका हाथसे बुना हुआ कपड़ा। उसी तरह कते और बुने रेशम, पटसन और ऊनको क्रमसे रेशमी, पटसनकी और ऊनकी खादी कहना चाहें तो कह सकते हैं। लेकिन रेशमी खादी पहनकर कोई खादी के प्रचारका दावा करे तो यह हास्यास्पद होगा। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि विदेशी रेशमका उपयोग करनेकी अपेक्षा देशी रेशमका उपयोग बेहतर है। लेकिन इससे खादीका अर्थ तो चरितार्थं नहीं होता; इतना ही नहीं बल्कि यह खादीके प्रचारके लिए हानिकारक भी सिद्ध हो सकता है।

अन्त्यज भाइयोंके सम्बन्धमें

अस्पृश्यताके पापसे हिन्दू संसारने अभी मुक्ति तो प्राप्त नहीं की है, इतना ही नहीं वरन् स्थान-स्थानपर संकीर्ण विचार दिखाई देते हैं। वाइकोममें तो लोगोंने इस सम्बन्धमें हद ही कर दी है। लेकिन गुजरातको छोड़कर इतनी दूर जानेकी क्या जरूरत है? विले पारलेके राष्ट्रीय स्कूल में जो धर्म-संकट आ पड़ा था, उसे दूर करनेमें मैंने यथाशक्ति भाग लिया। उस स्कूलका शिक्षक वर्ग अन्त्यज बच्चोंको दाखिल करना चाहता है। उस स्कूलकी समितिमें भी अनेक सज्जन अन्त्यजोंको दाखिल करनेके पक्षमें हैं। विले पारलेमें इस प्रश्नके सम्बन्ध में बहुत प्रगति हुई है। अन्त्यज भाइयोंने अलग स्कूल खोले जानेकी माँग की है। ऐसी परिस्थितिमें मैंने सलाह दी कि अन्त्यज बच्चोंको स्कूलमें तुरन्त दाखिल करनेसे यदि स्कूलके अस्तित्वको धक्का पहुँचनेकी आशंका हो तो उनके लिए अलग स्कूल खोला जाना चाहिए। इस विशेष परिस्थितिपर लागू होनेवाले और उसे सुलझाने के लिए सुझाये गये मेरे इस विचारका गुजरातके कुछ स्कूलोंके अध्यापक ऐसा विपरीत अर्थं करते हैं कि प्रत्येक स्थानपर जहाँ-जहाँ राष्ट्रीय स्कूल हों वहाँ-वहाँ अन्त्यजोंके लिए अलग स्कूल खोले जाने चाहिए। मेरा मत है कि यदि इस सुझावपर अमल किया जायेगा तो दोनों ही स्कूल डूब जायेंगे। इसका मुख्य कारण तो यह है कि हम इतना अधिक खर्च नहीं उठा सकेंगे। और यदि एक बार हम सिद्धान्तमें ढील होने देंगे तो अन्ततः सिद्धान्तका नाश हो जायेगा और अस्पृश्यताका कलंक कायम रह जायेगा। विले पारलेकी विशेष परिस्थितिमें दी गई सलाहका अनुकरण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त दोषके कारण ही