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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और मेरी समझ में अस्पृश्यता निवारण एक ही है और वह यह कि हमें यानी हिन्दू जातिको अस्पृश्यताके दोषसे मुक्त होना चाहिए। चारों वर्ण एक-दूसरेका स्पर्श करनेसे अपवित्र नहीं हो जाते, इसमें पाप नहीं मानते; अस्पृश्योंके सम्बन्धमें भी ऐसा ही होना चाहिए। अस्पृश्यता निवारणका इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं है, यह बात मैं अनेक बार कह चुका हूँ। जिस तरह अलग-अलग जातियोंके बीच परस्पर रोटी अथवा बेटी व्यवहार नहीं है उसी तरह उक्त प्रस्ताव के अनुसार अस्पृश्य माने जानेवाले लोगों के साथ भी उसकी जरूरत नहीं है। एक-दूसरेके साथ खाना-पीना अथवा एक-दूसरेके साथ बेटी व्यवहार रखना कोई जरूरी कर्त्तव्य नहीं है लेकिन एक-दूसरेका स्पर्श न करना और ऐसा मानना कि अमुक व्यक्ति अमुक जातिमें जन्मा होनेके कारण अस्पृश्य है—सृष्टि के नियम, दयाधर्म और सच्छास्त्र के विरुद्ध है। ऐसे पापी रिवाजके नष्ट करने के प्रयत्नको रोटी व्यवहार अथवा बेटी व्यवहारके साथ मिलाना तो आवश्यक प्रायश्चित्त के प्रवाहको अवरुद्ध करनेके समान है। अस्पृश्यताका दोष हममें इतना अधिक घर कर गया है कि इसे हम दोष के रूपमें पहचानते ही नहीं हैं। इसे तो लोग इस तरह सहेजकर रख रहे हैं मानो यह हिन्दू जातिका भूषण हो। जब [हिन्दू जातिके] हितेच्छुओं को इसी दोषको दूर करनेमें इतनी कठिनाई हो रही है उस समय अन्य विघ्न उपस्थित करके सुधारको रोकना व्यवहारकुशल व्यक्तिका काम नहीं है।

रोटी-व्यवहार और बेटी व्यवहारका प्रश्न तो जातिसे सम्बन्धित सुधारका प्रश्न है। जो लोग यह मानते हैं कि जाति प्रथा ही नष्ट हो जानी चाहिए वे लोग स्वयं ऐसे सुधार करने के लिए प्रयत्नशील हैं। लेकिन यह प्रयत्न बिलकुल अलग है और अस्पृश्यता निवारणका उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, यह बात स्पष्ट रूपसे समझनेकी जरूरत है। जो लोग जाति-बन्धनको नष्ट करना चाहते हैं, अस्पृश्यता निवारणके कार्य में वे भी अपना योग देते हैं, और यह ठीक भी है। लेकिन यदि वे लोग इस बात को समझ लें कि अस्पृश्यता निवारण और जाति- उन्मूलन दोनों अलग-अलग चीजें हैं, उनका मूल भी अलग है तो वे इन दोनों कार्यों की कीमत और आवश्यकताको उनके गुण-दोष के आधारपर परख सकते हैं।

तो फिर अस्पृश्यता दूर करनेका तात्पर्य क्या हुआ? मैं तो मानता था कि यह बात भी लोगोंको अच्छी तरहसे समझाई जा चुकी है। उसका तात्पर्य यह है कि अस्पृश्य माने जानेवाले भाई दूसरे वर्णोंकी भाँति आजादीसे घूम-फिर सकें, जिन स्कूलों और जिन मन्दिरोंमें अन्य वर्णोंके लोग जाते हैं, वहाँ अस्पृश्य समझे जानेवाले भाई जा सकें और जिस कुऍसे सब लोग पानी भरते हैं, वहाँसे वे भी भर सकें।

'लेकिन अस्पृश्य लोग तो बहुत गन्दे रहते हैं, उनका धन्धा गन्दा होता है!' मेरे खयालसे यह दलील तो अज्ञानवश ही दी जाती है। अस्पृश्योंकी अपेक्षा कुछ दूसरे लोग अधिक गन्दे होते हैं तथापि सार्वजनिक कुओंसे पानी भरते हैं। दूधपीते बच्वेको माँका धन्धा गन्दा है, डाक्टरका भी गन्दा है तथापि उन्हें हम सम्मान देते हैं। उनके बारेमें यह कहा जाता है कि अपना काम करनेके बाद वे साफ हो जाते हैं, तो अधिकांश अस्पृश्य भी कुओंपर जानेसे पहले साफ हो जाते हैं। और यदि नहीं होते तो इसमें दोष हमारा है। हम उनका तिरस्कार करें उन्हें गाँवसे दूर