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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी पड़ेगा। परन्तु सहयोगियोंका भी धर्म यह नहीं है कि वे हमेशा सरकारसे मदद माँगते रहें। यदि तमाम सहयोगी हर वक्त सरकारकी ही सहायतापर नजर रखें तो फिर या तो वह सरकार ही नहीं रहेगी अथवा वह एक जालिम राज्य हो जायेगी। संसारके दूसरे किसी भागके लोग सरकारपर ही सारी जिम्मेदारी डालकर नहीं बैठ रहते बल्कि खुद ही अपनी और अपने सम्मानकी रक्षा कर लेते हैं।

तब सहयोगी और असहयोगी दोनों के लिए सरकारकी मदद मांगे बिना काबुलियोंके जुल्मसे बचने के कौन-कौनसे रास्ते खुले हैं?

एक आम रास्ता तो यह है कि लोग काबुलियोंसे लड़ें।

दूसरा रास्ता सत्याग्रहका है।

पहला रास्ता अंगीकार करना लोगोंका अधिकार और धर्म है। यदि लोग अपनी रक्षा न कर सकेंगे तो वे कायर समझे जायेंगे। स्वराज्य सरकार भी पल-पलपर लोगोंकी रक्षा ही नहीं करती रहेगी। सरकार बड़े-बड़े संकटोंसे रक्षा करनेके लिए तैयार हो सकती है; परन्तु क्या कोई सरकार जहाँ-तहाँ अलग-अलग और दूर-दूर बसे हुए लोगोंकी रक्षा कर सकती है? इस सरकार की तो रीति ही ऐसी है कि वह काबुलियोंके जुल्म-जैसे भयोंसे लोगोंकी रक्षा एकाएक नहीं कर सकती। उसकी रक्षानीति मुख्यतः उसे इस हदतक ही ले जाती है कि हम लोग आपसमें इतना न लड़ें कि आज हम कारकुनोंकी तरह उसकी जो सेवा करते हैं उसके लायक ही न रह जायें। वह हिन्दुस्तानकी बाहरी और भीतरी रक्षा अपने व्यापारके लिए जरूरी समझती है और उस सीमातक रक्षा करने के लिए वह पूरी तैयारी रखती है। में यह कहना या मनवाना नहीं चाहता कि वह दूसरी तरह की रक्षा करना ही नहीं चाहती। परन्तु ऐसी रक्षा करना उसका मुख्य कर्त्तव्य नहीं है इस कारण वह उसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं होती। यदि वह वैसी तैयारी करना चाहे तो रक्षाके नामपर वह आजसे कहीं ज्यादा खर्च करेगी और वैसा उसे करना भी पड़ेगा। हमें आज भी घर-खर्चसे दरबानका खर्च ज्यादा उठाना पड़ता है। फिर यदि वह काबुलियोंके जुल्म-जैसे भयको दूर करनेकी पूरी तैयारी करे तो दरबान अलबत्ता सुखी ही रहेगा—परन्तु गृहस्थ तो बेचारा भीतरका-भीतर ही मर जायेगा। इसलिए हमें ऐसे भयोंसे अपनी रक्षा खुद ही कर लेनी चाहिए। हाँ, इसमें यह खामी जरूर है कि हमारे पास हथियार नहीं हैं। परन्तु हथियारोंसे भी ज्यादा जरूरत हिम्मतकी है। डरपोकके हाथ में बन्दूक किस कामकी? उसकी बन्दूक उसीपर चलाई जायेगी। डरपोक बन्दूक-धारीको हथियार न रखनेवाले हिम्मतवर हरा देंगे और उसकी बन्दूक चलाने के पहले ही छीन लेंगे। हर गाँवके हिम्मतवर लोग यदि जान हथेलीपर लेकर लोगों की रक्षा करनेके लिए तैयार हो जायें तो काबुलियोंका जुल्म तुरन्त कम हो जाये। यहाँ यह लिख देना भी आवश्यक है कि शान्त असहयोगी की प्रतिज्ञामें ऐसी स्वरक्षाका निषेध नहीं है।

'परन्तु क्या मैं ऐसे काममें हाथ बटाऊँगा?' यदि कोई मुझसे यह सवाल पूछे तो मुझे नकारात्मक उत्तर ही देना पड़ेगा। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मुझमें हिम्मत तो है। जिसमें हिम्मत न हो वह सत्याग्रही हो ही नहीं सकता। डरपोकका