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कालियोंका जुल्म

धर्म तो सत्याग्रह हो ही नहीं सकता। हाँ, डरपोक भी डरके मारे सत्याग्रही सेनामें शामिल हो सकता है; परन्तु यह अलग बात है। लेकिन मैं एक साथ दो घोड़ोंपर सवारी नहीं कर सकता। मैं तो सत्याग्रह करते-करते सत्यमूर्ति बनना चाहता हूँ, सत्यमय हो जाना चाहता हूँ। इसलिए मैंने किसीको मारकर जीवित रहनेका धर्म जान-बूझकर छोड़ दिया है। मैं तो मरकर जीवित रहनेका मन्त्र सीखना और उसके मुताबिक चलना चाहता हूँ। मैं प्रेमके द्वारा ही जीवित रहना चाहता हूँ। कोई भी व्यक्ति जो मुझसे वैरभाव रखता हो इसी क्षण आकर मेरे शरीरको नष्ट कर सकता है। मैं निरन्तर प्रार्थना करता हूँ कि उस समय भी मेरे हृदयमें प्रेम ही दिखाई दे। यह प्रयोग करते हुए मैं मारकर रक्षा करने के प्रयोग में शामिल नहीं हो सकता और न मेरी ऐसी इच्छा ही है।

इस अवस्थामें मेरे लिए और मुझ जैसोंके लिए केवल दूसरा रास्ता शेष रह जाता है। इसके लिए बहुत लोगोंकी जरूरत नहीं है। इसमें सामुदायिक सत्याग्रह असम्भव है। शास्त्रका यह कहना है कि यदि हममें कोई संयमी पुरुष हो तो वह काबुलियोंके हृदयको भी छू सकता है। कोई सच्चा मुसलमान फकीर इस कामको आसानीसे कर सकता है। परन्तु यह बात नहीं कि कोई हिन्दू संन्यासी इस कामको नहीं कर सकता। सत्याग्रह-शास्त्रमें न तो जाति-भेद है और न धर्म-भेद। उसकी अवधूत दशामें भाषाकी भी जरूरत नहीं रहती। हृदय हृदयका काम किया ही करता है।

जो काम एक सहजानन्दने[१] गुजरातमें किया, उसे राज्य-दण्ड न कर सका। जो काम चैतन्यने[२] बंगालमें किया उसे सरकार आजतक नहीं कर सकी है और कर भी नहीं सकेगी। डाकू और चोर चैतन्यके तेजसे ही सुधर जाते थे। हिन्दुस्तानमें मुसलमान फकीरों और हिन्दू संन्यासियोंके ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं। डाकुओंने अब्दुल कादर जीलानी के सत्यबलसे लूटा हुआ माल वापस कर दिया था और अपना डाके डालनेका पेशा छोड़ दिया था। यदि गुजरात के यतियों और साधुओंमें कोई भी निर्भय, संयमी हो तो वह काबुलियोंके जुल्मसे लोगों को सहज ही मुक्त कर सकता है। सहजानन्दका जमाना अभी खत्म नहीं हुआ है। जरूरत है उनके सदृश भक्ति और संयमकी। इस युग में थोड़ी भक्ति और थोड़ा संयम भी फलीभूत हो जाता है, क्योंकि यदि बीमारको इतनी मात्रा दी जाती है जिसका अनुभव उसे अबतक न हुआ हो, तो वह थोड़ी होने के बावजूद असर कर जाती है।

हाँ, इसपर अवश्य ही यह सवाल हो सकता है : "दूसरोंको यति बनाते हो तो तुम खुद ही यति होकर दिखा दो न, बस सब-कुछ हो जायेगा। यह बात भी सच है। परन्तु यदि मेरा बचाव समझ में न आया हो तो मैं उसे लिखकर नहीं समझा सकता। फिर यह लेख उन लोगोंके लिए नहीं लिखा गया है जो ऐसी शंका उठाते हैं। क्या यह सम्भव नहीं हो सकता कि जो बात मुझे बुद्धि द्वारा बिलकुल सम्भव मालूम होती हो उसे करनेका हार्दिक सामर्थ्य मुझमें न हो? मैंने सामर्थ्यका

  1. (१७८१-१८३०); स्वामीनारायण मतके संस्थापक।
  2. बंगालमें सोलहवीं सदीमें कृष्णभक्ति के प्रबल प्रचारक और जाति प्रथा के विरोधी।