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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


ऐसी हलचलों में एक बड़ा भय यह रहता है कि अगुआ लोग अति उत्साह के कारण आगा-पीछा न सोचकर आन्दोलनमें कूद पड़ते हैं और बादमें जब सिपाहियोंकी कमी पड़ती है तब परेशान होते हैं और हार जाते हैं। हरएक हलचल आरम्भ करने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि इसमें लोग कहाँतक साथ देंगे। दो-चार जवानोंका उत्साह बड़ी लड़ाई चलाने के लिए काफी नहीं होता। जहाँ लोग तैयार न हों वहाँ लोगों के नामपर किसी कामको आरम्भ करना हर तरह से हानिकर है। जिसमें उमंग हो वह खुद ही आग सुलगाकर उसमें अपनी आहुति देकर शुद्ध हो सकता है। वह रोष या द्वेष न करे। जो इस तरह आग में कूदता है वह शौकके कारण कूदता है, परोपकार के लिए नहीं। आगसे दूर रहना उसे दुःखदायी मालूम होता है। ऐसी आहुतियोंकी भी आवश्यकता होती है। इस तरह अपना बलिदान करनेका अधिकार सबको है। ऐसे व्यक्तिगत त्यागसे संसारके कितने ही महान् कार्य सिद्ध हुए हैं।

परन्तु जब सामुदायिक सत्याग्रहका सवाल खड़ा होता है तब व्यक्तियोंके उत्साहपर पूरा-पूरा अंकुश रखने की जरूरत होती है। तब लोगों में उत्साह, धीरज और सहिष्णुता होनी चाहिए। यदि लोगों में केवल उत्साह हो और वे सफलता न मिलनेपर धीरज खो बैठें तो हार हुए बिना न रहेगी। यदि उनमें कष्ट सहन करनेकी शक्ति न हो तो जब सत्ताधीश अन्दाजसे कहीं ज्यादा कष्ट देते हैं तब उनके हिम्मत हार जानेकी सम्भावना रहती है। इसलिए अगुआ लोग इन तमाम बातोंपर विचार करके ही युद्धमें उतरें।

एक और बात भी ध्यानमें रखने लायक है। अक्सर यह विश्वास रखा जाता है कि सत्ताधीश एक हदसे आगे नहीं बढ़ेंगे। ऐसे विश्वासके लिए स्थान ही नहीं है। सत्ताधीशका तो काम ही होता है विरोधको दबा देना। जब वह लोगोंकी माँगको मंजूर न करना चाहता हो तब वह लोगों को हर तरहसे दबा देना अपना धर्म समझता है। इसलिए यह मानना कि वह दया करके कम कष्ट देगा, महज भोलापन है। ऐसे ही भोलेपन के कारण वाइकोमके सत्याग्रहियोंने मान लिया था कि त्रावणकोरके राजा नेताओं को गिरफ्तार नहीं करेंगे। क्यों गिरफ्तार नहीं करेंगे? क्या त्रावणकोरके राजा सत्याग्रहकी मदद करना चाहते हैं? यदि केवल नेताओंको पकड़ने से कोई हलचल दब सकती हो, और उसे दबाना धर्म हो तो उसके नेताको पहले पकड़ना धर्म ही है। इससे बेचारे सिपाही लोग कष्टसे बच जाते हैं। और यदि सिपाही खुद नेताका स्थान लेने लायक हों तो वे नेताके कैद होनेपर खुश होंगे, उसकी गिरफ्तारीका स्वागत करेंगे। यदि सत्ताधीश नेताको नहीं पकड़ते तो इसी खयालसे नहीं पकड़ते कि उसे पकड़ने से लड़ाई अधिक जोर पकड़ेगी। अतएव हमें यह मानकर ही लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए कि सत्ताधीश उनसे जितना हो सकता है उतने कठोर उपायोंका अवलम्बन करके लड़ाईको दबा देनेका प्रयत्न करेंगे।

इस प्रकार तमाम बातोंपर पूरी तरह गौर करनेपर यह निश्चय हो जाये कि हाँ, तमाम शर्तोंका पालन होगा तो फिर किसी भी अवस्थामें सत्याग्रह किया जा सकता है और उसका फल भी अवश्यमेव शुभ होगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २०–४–१९२४