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३५९. गो-रक्षा

गो-रक्षासे हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यका निकट सम्बन्ध है। परन्तु हम आज गो-रक्षाके प्रश्नपर उस दृष्टिसे विचार नहीं करेंगे। हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यके सम्बन्ध में तथा उसको सामने रखकर गो-रक्षाके सम्बन्धमें मुझे बहुत कुछ लिखना है। वह समय आनेपर होगा। इस लेख में धर्म की दृष्टिसे भी गो-रक्षाके प्रश्नपर विचार नहीं किया जायेगा। हम इसपर केवल आर्थिक दृष्टिसे ही विचार करेंगे।

मुझे जुहू-जैसे एकान्त स्थानमें रहते हुए कुछ अनुभव हुए हैं, जिनसे मेरे पुराने विचार ताजा हो गये हैं। मैं इन्हीं विचारोंको पाठकोंके सामने रखना चाहता हूँ । मेरे साथ रहनेवाले, मेरी देखरेख में बड़े हुए या मेरे साथ निकट सम्बन्ध रखनेवाले कुछ लोगोंको जो बीमार हैं, मैंने यहाँ अपने साथ जलवायु परिवर्तनमें भाग लेने के लिए बुला लिया है। उनकी मुख्य खुराक गायका दूध है। यहाँ गायका दूध मिलने में कठिनाई होने लगी। यहाँसे नजदीक ही बम्बईके तीन उपनगर हैं—विले पारले, अन्धेरी और सान्ताक्रूज। इन तीनों जगहोंसे भी गायका दूध आसानीसे मिलना कठिन हो गया। भैंसका दूध जितना चाहिए मिल सकता है। वह भी मुझे बिना मिलावटका इसलिए मिल सकता है कि मेरी खास चिन्ता रखनेवाले मित्र आसपास बसते हैं; नहीं तो वह भी यहाँ शुद्ध रूपमें दुर्लभ है। अन्तमें मुझे तो ईश्वर और मित्रोंकी कृपासे गायका दूध भी मिल गया है। हालांकि मित्रोंने मुझसे कहा है कि वे अपने बचे हुए दूध से ही मुझे गायका दूध भेजते हैं, फिर भी मुझे डर है कि मैंने उनकी जरूरत के दूध में हिस्सा बँटाया है। परन्तु क्या मेरे जैसा सद्भाग्य सभीका होता है? मैं अपने-आपको भिखारी कहता हूँ, तथापि मुझे किसी तरह की अड़चन नहीं उठानी पड़ती। मित्रोंके इस असीम प्रेमकी पात्रता मुझमें कितनी होगी, यह तो मेरे मरनेके बाद दया करके जब कोई ठीक-ठीक हिसाब लगायेगा, तभी पता चलेगा।

परन्तु गायके दूधके इस अभावने मुझे फिर जाग्रत कर दिया है। हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में, जहाँ जीव दयाका धर्म पालनेवाले असंख्य मनुष्य बसते हैं और जहाँ गायको माता के समान माननेवाले करोड़ों धर्मात्मा हिन्दू रहते हैं, वहाँ गायोंका ऐसा बुरा हाल है, वहाँ गायके दूधका इतना अभाव है, गायोंके दूध में मिलावट होती है और वह गरीबोंको सर्वथा अलभ्य है। इसमें दोष न मुसलमानोंका है और न अंग्रेजी सत्ताका। यदि इसमें किसीका दोष है तो वह हिन्दुओंका है। किन्तु वह दोष जान-बूझकर की जा रही उपेक्षाका नहीं, अज्ञानका परिणाम है।

हिन्दुस्तान में जगह-जगह गोशालाएँ हैं; किन्तु उनकी हालत दयनीय है। उनके काम करने का तरीका सदोष है। इन गोशालाओं या पिंजरापोलोंमें बेशुमार धन खर्च होता है। कुछ लोग कहते हैं कि अब तो यह सोता भी सूखने लगा है। शायद एसा हो भी। परन्तु मुझे यकीन है कि अगर यह काम अच्छी बुनियादपर उठाया जा