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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सके तो हिन्दुस्तान के भावुक हिन्दू रुपयोंका ढेर लगा देंगे। मुझे दृढ़ विश्वास है कि यह काम असम्भव नहीं है।

पिंजरापोल शहरोंके बाहर विस्तृत मैदानमें होने चाहिए। उनमें केवल बूढ़े पशु ही नहीं बल्कि दुधारू पशु भी होने चाहिए। हर शहरको अपने ही पिंजरा-पोलसे अच्छा दूध मिलना चाहिए। मुझसे अपरिचित लोगोंने मुझे मशीनोंके खिलाफ बताकर मुझे खूब बदनाम किया है और मेरा मनोविनोद भी किया है। मैं इन दुग्ध-शालाओंका संचालन करने के लिए जितनी मशीनोंकी जरूरत हो उन सबको ख़रीदने के खिलाफ अपनी "महात्मा" की आवाज नहीं उठाऊँगा, यही नहीं बल्कि उसके पक्ष में अपनी नम्र राय देने को भी तैयार हूँ। यदि इन दुग्धशालाओंकी देख-भालके लिए कोई हिन्दुस्तानी व्यवस्थापक न मिले तो मैं किसी सच्चे अंग्रेजको नियुक्त करनेके लिए भी तैयार हो जाऊँगा। इस प्रकार यदि हम इन पिंजरापोलोंको दुग्धशाला बनायेंगे और अच्छे-अच्छे पशुओंको पालकर दूध-मक्खन कम दामोंपर बेचेंगे तो हजारों मवेशियोंको सुख पहुँचेगा और गरीबों और बच्चोंको स्वच्छ और सस्ता घी मिलेगा। अन्त में ऐसी प्रत्येक गोशाला स्वावलम्बी अथवा लगभग स्वावलम्बी बन जायेगी। मेरे इस कथन में कितनी व्यावहारिकता है यह बात किसी एक गौशाला में ऐसा प्रयोग करनेसे मालूम हो जायेगी।

मैं आशा करता हूँ कि इसपर कोई यह शंका न उठायेगा कि 'इसमें धर्म कहाँ है? यह तो रोजगार हो गया?' यदि कोई ऐसा शंकालु पाठक हो तो मैं उससे इतना ही कहना चाहता हूँ कि धर्म और व्यवहार ये दोनों हमेशा परस्पर विरुद्ध नहीं होते। जब व्यवहार धर्मका विरोधी दिखाई दे तब वह त्याज्य है। धर्मकी कसौटी भी तभी होती है जब वह व्यवहारमें परिणत होता है। धर्म में मामूली कार्य-कुशलता के अलावा कुछ और बातों की जरूरत होती है, क्योंकि विवेक, विचार और ऐसे ही अन्य गुणोंके बिना धर्मका पालन ही असम्भव है। आजकल तो धन कमाने में रत सेठ साहूकार सरल चित्तसे अनेक प्रकारके दान बिना विचारे ही करते रहते हैं। जो संस्थाएँ इस दानका शिकार होती हैं उनके व्यवस्थापक उन संस्थाओंको बिना विचारे चलाते हैं और हम उनका अनुमोदन करते हैं। इस तरह तीनों ही पक्ष अनजानमें ठगे जाते हैं और समझते हैं कि वे धर्म कर रहे हैं। सच बात तो यह है कि इस प्रकार धर्म के नामपर बहुत बार बिलकुल अधर्म ही होता है। यदि तीनों पक्ष विवेकपूर्वक धर्मको समझें और उसके अनुसार चलें अथवा एक पक्ष भी ऐसा करे तो प्रत्येक संस्था शुद्ध धर्मसे दमक उठे।

[गुजराती से]
नवजीवन, २०–४–१९२४