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और फिर स्थानीय संघर्षको बाहरी आर्थिक सहायताकी भी जरूरत न होनी चाहिए। त्रावणकोर राज्यके सभी निर्बल किन्तु हमदर्दी रखनेवाले हिन्दू अपनेको गिरफ्तार न करायें और न अन्य प्रकारके कष्टोंका आह्वान करें; परन्तु वे आवश्यक आर्थिक सहायता कर सकते हैं, और उन्हें करनी भी चाहिए। यदि वे ऐसी सहायता नहीं करते तो मेरी समझ में उनकी हमदर्दीका कोई अर्थ नहीं है।

जहाँ भारी मुसीबतों का सामना करना पड़े और बहुत कम लोग सत्याग्रह करने के लिए आगे आयें उस परिस्थितिमें भी बाहरसे मदद लेना उचित नहीं। सार्वजनिक सत्याग्रह व्यक्तिगत अथवा कौटुम्बिक सत्याग्रहका विस्तृत रूप है। सार्वजनिक सत्याग्रहके प्रत्येक मामले में कौटुम्बिक सत्याग्रहके दृष्टान्तको सामने रखकर उसकी जाँच करनी चाहिए। इस तरह फर्ज कीजिए कि मैं अपने कुटुम्बसे छुआछूतके अभिशापको मिटा देना चाहता हूँ। अब मान लीजिए कि मेरे माता-पिता इस विचारका विरोध करते हैं; मान लीजिए कि मेरे अन्दर उतना ही दृढ़ विश्वास है जितना कि प्रह्लादमें था, और मेरे माता-पिता पूरी तौरसे मेरी खबर लेनेकी धमकी भी देते हैं, और वे मुझे सजा देने के लिए राज्यकी भी मदद लेते हैं; तो मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं अपने साथ कष्ट सहन करने के लिए और मेरे पिताने मेरे लिए जो सजा तजवीज की है उसमें शरीक होने के लिए अपने मित्रोंको बुलाऊँ? या मुझे चाहिए कि मैं हर तरहके कष्टों और तकलीफोंको, जो मुझे पहुँचाई जायें, खुद चुपचाप सहन करूँ और प्रेम और कुर्बानी की शक्तिपर ही पूरा भरोसा रखते हुए उनके हृदयको पिघलाने की कोशिश करूँ, जिससे उनकी आँखें खुल जायें और वे छुआछूतकी बुराईको देख सकें? इतना मैं जरूर कर सकता हूँ कि जो बातें मेरे बालक होने के कारण पिताजी सुननेको तैयार नहीं हैं, उन्हें समझाने के लिए विद्वानों और कुटुम्बके हितैषियोंकी सहायता लूँ। लेकिन कष्ट सहन करने के अपने इस धर्म और सौभाग्यमें मैं उनमें से किसीको भी हाथ नहीं बँटाने दूँगा। इस कौटुम्बिक सत्याग्रहके कल्पित उदाहरणपर जो बात घटती है वही सार्वजनिक सत्याग्रहपर भी पूरी-पूरी चरितार्थ होती है। ऐसी अवस्था में वाइकोम सत्याग्रह संघर्ष में भाग लेनेवाले सत्याग्रही संख्या में चाहे बहुत ही कम हों, और जैसाकि मैंने सुना है, चाहे ज्यादातर हिन्दू उनके साथ हों, इतनी बात साफ है कि उन्हें लोगोंकी सार्वजनिक हमदर्दीके अलावा दूसरे किस्मकी सहायतासे बचना चाहिए। शायद हर मौकेपर हम इस नियमके अनुसार काम न कर सकें और इस मौकेपर भी शायद ऐसा न हो पाये, परन्तु हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि सिद्धान्त यही है। जहाँतक हमसे बन पड़े वहाँतक हमें इसपर कायम रहना चाहिए।

चिरला पेरलाको मिसाल

ऐसी ही एक घटना के मौकेपर सलाह देनेका सुअवसर मुझे मिला था और वह है चिरला पेरलाकी घटना[१], जिसका जिक्र भी मैं यहाँ किये देता हूँ। वहाँके निवासियोंका दावा था कि हमारा समुदाय संगठित है और कुर्बानी के लिए तैयार है। और सचमुच

  1. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ १६-१८।