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अभिव्यक्तिकी स्वतन्त्रता
था। चाहे वर्त्तमान दोहरी शासन प्रणालीको समाप्त कर देना पड़े, परन्तु सम्राट्की सरकार अनिवार्य रूपसे कायम रखी जानी चाहिए।

मुझे श्री जे॰ बी॰ पेनिंगटनसे परिचय ताजा करनेका अवसर पाकर खुशी हो रही है। उनके प्रश्नका उत्तर बिलकुल ही सरल और सीधा है। यदि भारत ब्रिटिश बन्दूकों के जवाब में अपनी बन्दूकें बिना ताने ब्रिटिश राज्यको असम्भव बनाने में सफल हो जाता है तो वह अपना शासन-तन्त्र भी इसी प्रकार बन्दूकों या बलके प्रयोग के बिना चला लेगा। परन्तु यदि यह नितान्त अनिवार्य हो कि बन्दूकोंके बलपर चलाया जाने- वाला शासन-तन्त्र दूसरी—उससे अधिक मजबूत या उतनी ही मजबूत—बन्दूकोंसे ही मिटाया जाये, तो फिलहाल ब्रिटिश राज्यको असम्भव बनानेके कोई आसार नजर नहीं आते। तब मुझे यह बात स्वीकार करनी ही होगी, जैसा कि उक्त पत्र लेखक मुझसे स्वीकार कराना चाहता है कि ब्रिटिश लोगों का यह खयाल कि उन्हें भारतमें एक जिम्मेदारी निभानी है, ठीक है। परन्तु मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि हम भारतवासियों की धारणा यह है कि यदि हम आपसमें कट मरनेके लिए उतावले ही हों तो ब्रिटिश लोगोंका कर्त्तव्य यह नहीं है कि वे हम लोगोंपर शान्ति थोपने की कोशिश करें। उनका कर्त्तव्य तो केवल इतना है कि वे हमारे कन्धोंपर से उतर जायें। हमारा खयाल है कि हम उस बोझ के मारे मरे जा रहे हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४-४-१९२४
 

३६४. अभिव्यक्तिकी स्वतन्त्रता

सम्पादक
'यंग इंडिया'
महोदय,
१० अप्रैलके, 'यंग इंडिया' में तिब्बिया कॉलेजकी घटनाके सम्बन्ध में आपने अपनी टिप्पणीमें लिखा है[१] : "जिस मुसलमान विद्यार्थीने तुलनाके बारेमें आपत्ति उठाई थी उसने ठीक ही किया था।" जिस दिन श्री गांधीका जन्म दिवस मनाया गया उस दिन तिब्बिया कॉलेजमें वास्तवमें घटना क्या घटी थी सो में नहीं जानता किन्तु डाक्टर अन्सारीने जो लिखा है, उसे घटनाका ठीक वर्णन माननेपर भी, मुझे लगता है कि आपने टिप्पणीमें जो कुछ लिखा है उससे सहमत होना कठिन है। श्री गांधीकी जब ईसा मसीहसे तुलना की गई तब ऐसा नहीं लगता कि किसीको हानि पहुँचानेका कोई उद्देश्य था, अथवा किसीकी कोई हानि हुई हो। जैसा कि आप लिखते हैं, किसी मनुष्यका सम्मान करनेके
  1. देखिए "असत्य कथनका आन्दोलन", १०–४–१९२४।

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