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३६५. हिन्दू धर्म क्या है?

मेरे एक प्रिय मित्रने मुझे एक पत्र भेजा है जिसे अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। उसमें उन्होंने मेरे द्वारा मौलाना मुहम्मद अलीके उस प्रसिद्ध भाषणको दोषरहित बताने की शिष्टतापूर्ण आलोचना की है, जिसमें उन्होंने धर्मोंकी तुलनाकी थी। उक्त महोदय का कहना है कि मैंने हिन्दू धर्मके प्रति न्याय नहीं किया, क्योंकि मैंने कहा है कि किसी हिन्दू की विचारधारा भी मौलानाकी विचारधारासे बेहतर न होगी। उन्हें विवाह सम्बन्धी मेरे दृष्टान्तपर आपत्ति है। आगे चलकर वे हिन्दू-धर्मकी खूबियाँ दर्शातें हैं। एक और सज्जनने भी इसी ढंगका प्रतिवाद भेजते हुए कहा है कि अनेक व्यक्तियोंकी राय भी उन्हींके जैसी है।

मेरी रायमें, इन सज्जनोंने धर्मोंकी तुलना करनेके औचित्य के प्रश्नको, विभिन्न धर्मों के बीच उनके गुण-दोषोंके बँटवारेके प्रश्नके साथ जोड़कर बात उलझा दी है। उन्होंने कहा है कि हिन्दू धर्म इस्लाम जैसा नहीं है और न कोई हिन्दू मौलानाकी तरह सोच ही सकता है। परन्तु उनका यह कहना खुद अपने मुँहसे मौलानाकी बातका समर्थन करना है। अपने धर्मको दूसरे धर्मोंसे बढ़कर माननेका यह सर्वथा उचित और स्वाभाविक परिणाम है कि हम अपने सम्प्रदायके निकृष्ट व्यक्तिको भी दूसरे सम्प्रदाय के अच्छे-अच्छे साधुवृत्तिवाले व्यक्तिकी अपेक्षा बढ़कर मानें। विवाहका जो दृष्टान्त दिया गया था उसपर दृढ़ हूँ; यद्यपि अब मेरी समझमें आ गया है कि उसे टाल जाना बेहतर होता। वह उदाहरण निर्णायक उदाहरण नहीं है। मैं मानता हूँ कि वरको अमुक वर्ग में से ही चुना जाना चाहिए। मेरे आलोचकोंके पास इसके अनेक कारण हैं। किन्तु में इतना तो अवश्य कहूँगा कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति भी यदि वह किसी दूसरे वर्ग अथवा जातिका हो तो वरके रूपमें पसन्द नहीं किया जाता और इसका प्रधान कारण उसका मजहब ही हुआ करता है। ब्राह्मण माता-पिता अपनी कन्याके लिए पति के रूपमें ब्राह्मणको ही चुनते हैं, क्योंकि वे अपने कुलगोत्रको प्रधानता देते हैं। इस पसन्दगीके मूलमें निश्चय ही यह विश्वास है कि किसीके मतको अंगीकार कर लेनेका अर्थ होता है अन्ततः उसके अनुसार आचरण करना। किसी संकीर्ण धर्म में, यदि उसके प्रति सच्ची निष्ठा रखी जाये तो स्वभावतः आचरणका क्षेत्र सीमित हो जाता है। उदाहरणके लिए ऐसा मत जिसके अन्तर्गत मनुष्यकी बलि देना अनिवार्य माना गया हो, अपने अनुयायीको ऐसी धार्मिक हत्या करनेपर विवश करेगा; हाँ यदि वह अपने धर्मका त्याग कर दे तो बात अलग है। इसीलिए हम देखते हैं कि ऐसे लोगोंसे, जो और सब प्रकारसे तो अत्यन्त नीतिनिष्ठ हैं, परन्तु अपने संकीर्ण धर्मके कारण सर्वोच्च धर्मकी दृष्टिसे घटकर बैठते हैं, हमें बड़ी निराशा होती है। कई सच्चे और अन्य दृष्टियोंसे उदारमना हिन्दू अस्पृश्यताको हिन्दू धर्मका अंग समझते हैं और इसलिए वे सुधारकोंको जाति-भ्रष्ट मानने लगते हैं। यदि अस्पृश्यता हिन्दू धर्मका अंग होती तो में अपनेको हिन्दू