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हिन्दू धर्म क्या है?

कहने से इनकार कर देता और निश्चय ही मैं ऐसा कोई दूसरा धर्म अंगीकार कर लेता जो धर्म-सम्बन्धी मेरी उच्चतम महत्त्वाकांक्षाओंके अनुकूल होता। मेरे लिए यह सौभाग्यकी बात है कि मैं मानता हूँ कि अस्पृश्यता हिन्दूधर्मका अंग नहीं है। इसके विपरीत वह हिन्दू धर्मंपर भारी कलंक है, जिसे मिटाने में हिन्दू धर्म के प्रत्येक प्रेमीको अपने-आपको बलिदान कर देना चाहिए। मान लीजिए, मुझे पता चलता है कि अस्पृश्यता सचमुच ही हिन्दू धर्मका अविभाज्य अंग है, तो मुझे बियाबान में भटकना होगा, क्योंकि दूसरे धर्म, जैसाकि उनके जाने-माने भाष्यकारोंके माध्यम से मैं उन्हें जान पाया हूँ, मेरी उच्चतम महत्त्वाकांक्षाओंको सन्तुष्ट नहीं कर पायेंगे।

प्रस्तुत पत्र-प्रेषक मुझपर दोतरफा बात कहने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि मैंने हिन्दू धर्म तथा सत्य और अहिंसामें कोई अन्तर नहीं माना है। मैंने यह अपराध जान-बूझकर किया है। यह हिन्दू धर्मका सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य है कि वह कोई सत्तारोपित मत नहीं है। अतः अपने-आपको किसी गलतफहमीसे बचाने के लिए ही मैंने कहा है कि सत्य और अहिंसा मेरा धर्म है। यदि मुझसे हिन्दू धर्मकी व्याख्या करनेके लिए कहा जाये तो मैं इतना ही कहूँगा—अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्यकी खोज। कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास न करते हुए भी अपने-आपको हिन्दू कह सकता है। सत्यकी अथक खोजका ही दूसरा नाम हिन्दू धर्म है। यदि आज वह मृतप्राय, निष्क्रिय अथवा विकासशील नहीं रह गया है तो इसलिए कि हम थककर बैठ गये हैं और ज्यों ही यह थकावट दूर हो जायेगी त्यों ही हिन्दू धर्म संसारपर ऐसे प्रखर तेजके साथ छा जायेगा जैसा कदाचित् पहले कभी नहीं हुआ। अतः निश्चित रूपसे हिन्दू धर्म सबसे अधिक सहिष्णु धर्म है। सब प्रकारके मतमतान्तरोंके लिए इसमें स्थान है। किन्तु इस प्रकारका दावा करना संसारके सब धर्मोकी अपेक्षा हिन्दू धर्मकी श्रेष्ठताका दावा करने के समान होगा। ये पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे लगता है, मानों सम्प्रदायवादियोंकी एक भीड़ मेरे कानमें कह रही हो : "आप जिसकी परिभाषा कर रहे हैं वह हिन्दू धर्म नहीं है। हमारे पास आइए, हम आपको सत्यके दर्शन करायेंगे।" मैं इन सब कानाफूसी करनेवालोंको 'नेतिनेति'—'ऐसा नहीं, मेरे मित्र, ऐसा नहीं'—कहकर अवाक् किये दे रहा हूँ। और वे भी दूने रोष के साथ प्रत्युत्तरमें 'नेतिनेति' कहकर सब गुड़ गोबर एक कर रहे हैं। किन्तु एक और स्वर मेरे कानोंमें गूँज रहा है; वह कहता है : 'यह सब द्वन्द्व क्यों, यह वाक्युद्ध किसलिए? मैं इसमें से निकलने का एक मार्ग दिखा सकता हूँ। वह मार्ग है—मूक प्रार्थना।" फिलहाल मैं चाहता हूँ कि उस स्वरको सुनूँ, और मौन धारण कर लूँ और अपने मित्रोंसे भी ऐसा ही करनेको कहूँ। सम्भवतः उन्हें और उनके सहधर्मियोंका मेरे इस कथनसे समाधान न हुआ हो। यदि ऐसा है तो वह केवल इसलिए कि अभीतक मुझे प्रकाशके दर्शन नहीं हुए हैं। मैं अपनी ओरसे यह विश्वास दिला सकता हूँ कि मैंने मौलाना मुहम्मद अलीका बचाव करनेके लिए यह विशेष वकालत नहीं की है। यदि मुझे अपनी भूलका पता लग गया तो मैं आशा करता हूँ कि मुझमें उसे स्वीकार करने का साहस होगा। मौलानाको मेरे बचावकी जरूरत नहीं है। और यदि उनके बचाव के लिए मैं सत्यका अणुमात्र भी हनन करूँ