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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो मैं उनका झूठा मित्र ठहरूँगा। मित्रका यह विशेष अधिकार होता है कि वह अपने मित्रके दोषोंको स्वीकार करे, और दोषोंके बावजूद कहे कि उसके प्रति उसके मनमें वैसा ही प्रेम बना हुआ है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४–४–१९२४
 

३६६. जेलके अनुभव—२
कुछ कर्मचारी

शनिवार, १८ मार्चको मुकदमा खत्म हुआ। हमने आशा की थी कि साबरमती जेलमें कुछ सप्ताह तो हम शान्तिसे बैठ सकेंगे। हमने यह तो सोच ही लिया था कि सरकार हमें लम्बे समयतक वहाँ नहीं रहने देगी, परन्तु बिलकुल अचानक ही हटा दिये जानेकी बातका हमें खयाल भी नहीं था। किन्तु हुआ यही। पाठकोंको याद होगा कि सोमवार, २० मार्चको हमें एक स्पेशल ट्रेनमें बैठा दिया गया, जो हमें यरवदा सेन्ट्रल जेल ले जानेवाली थी। हमें साबरमतीसे हटायेंगे, इस बातकी खबर हमें रवाना होनेके लगभग एक ही घंटे पहले दी गई। हम जिस कर्मचारीकी देखरेखमें भेजे गये वह बड़ा ही शिष्ट था और पूरे सफरमें उसने हमें कोई असुविधा नहीं होने दी। परन्तु खिड़की स्टेशनपर पैर रखते ही हमने परिवर्तन अनुभव किया और हमें महसूस होने लगा कि आखिरकार हम कैदी ही हैं। कलेक्टर दूसरे दो व्यक्तियोंके साथ गाड़ीकी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमें कैदियोंकी बन्द मोटरमें बिठाया गया। इस मोटरमें दोनों तरफ हवाके लिए छेद थे और यदि उसकी शक्ल उतनी भद्दी न होती तो हम उसे एक पर्देवाली मोटर कह सकते थे। बाहरकी दुनियाको तो उसमें से हम देख ही नहीं सकते थे। जेलमें हमारा कैसा सत्कार हुआ, भाई बैंकरको मेरे पाससे किस तरह हटाया गया, उसके बाद वे कैसे वापस लाये गये इन सब बातों तथा मेरी पहली मुलाकात और दूसरे दिलचस्प ब्योरेके लिए तो मैं पाठकोंसे अजमलखाँ साहबको लिखा गया अपना पत्र[१] देखने को कहूँगा। वह इन स्तम्भों में पहले ही प्रकाशित किया जा चुका है। पहले कटु अनुभवके बाद तत्कालीन सुपरिन्टेन्डेन्ट कर्नल डेलजीलके और हमारे सम्बन्ध जल्दी-जल्दी सुधरने लगे। हमारी शारीरिक सुविधाओंका वे बड़ा ध्यान रखते थे; परन्तु उनमें कुछ-न-कुछ ऐसी बात थी जो दूसरेको हमेशा खटकती रहती। उनके मनसे यह बात कभी नहीं निकल पाती थी कि वे सुपरिन्टेन्डेन्ट हैं और हम कैदी। हम कैदी हैं और वे सुपरिन्टेन्डेट हैं, इसका हमें पूरा भान है, यह मान लेने को वे तैयार नहीं थे। मैं दावेसे कह सकता हूँ कि हम यह बात किसी क्षण भी नहीं भूले कि हम कैदी हैं। उनके पदके योग्य हम उनका सम्मान करते थे; इसलिए उनका हमें अपने पदका बार-बार ध्यान दिलाना बिलकुल बेकार था। परन्तु

  1. देखिए "पत्र : हकीम अजमलखाँ को", १४–४–१९२२।