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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मेजर जोन्स कर्नल डेलजीलसे बिलकुल उलटे थे। वे जिस दिन जेलमें आये, उसी दिनसे कैदियोंके मित्र बन गये। अपनी पहली मुलाकातका मुझे पूरा-पूरा स्मरण है। हालांकि वे कर्नल डेलजीलके साथ बाकायदा ठाठबाटसे ही आये थे परन्तु उनमें अफसरीकी बू नहीं थी और इसलिए उनका व्यवहार मनको एक तरह की ताजगी देता था। वे मुझसे परिचितों की तरह मिले और साबरमती जेलके मेरे साथियोंके बारेमें बातें कीं और कहा कि उन्होंने आपको सलाम कहलवाया है। नियमोंके दृढ़ आग्रही होते हुए भी वे अपनी अफसरी नहीं बघारते थे। मुझे मेजर जोन्स-जैसा प्रतिष्ठा तथा बड़प्पनके झूठे गुमान अथवा दम्भसे मुक्त कोई भारतीय या यूरोपीय अधिकारी शायद ही कभी मिला हो। वे अपनी भूल स्वीकार करने को सदा तैयार रहते थे। यह बात अधिकारियोंके लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है और इक्का-दुक्का अफसर ही ऐसा करते हुए देखे जाते हैं। एक बार उन्होंने किसी राजनीतिक कैदीको नहीं परन्तु एक ऐसे असहाय कैदीको जो सचमुच अपराधी था, सजा दे दी। बादमें उन्हें महसूस हुआ कि सजा अनुचित थी। बिना किसी बाहरी दबावके उन्होंने उसे एकदम रद कर दिया और कैदीके आचरण-सम्बन्धी टिकटपर इस प्रकारकी उल्लेखनीय टिप्पणी लिखी : 'मुझे अपने निर्णयपर पश्चात्ताप है।' यह देखना सचमुच बड़ी रोचक चीज है कि कैदी लोग सुपरिन्टेन्डेन्टका पूरा खाका एक ही शब्दमें किस खूबीसे खींच देते हैं। मेजर जोन्सको वे "बहुत भला" कहते थे। इसी तरह प्रत्येक अधिकारीको उन्होंने एक-एक नाम दे रखा था।

अब मैं आटे और अन्य अप्रयुक्त खाद्य-पदार्थोंको रख छोड़नेकी अधूरी बातको पूरी करता हूँ। मेजर जोन्स जब पहली ही बार निरीक्षणपर निकले, उसी दिन मैंने उनसे प्रार्थना की कि जो चीज मुझे नहीं चाहिए वह मुझे न दी जाये। उन्होंने तुरन्त मेरी प्रार्थनापर अमल करनेका हुक्म दे दिया। कर्नल डेलजीलको मेरे कथन के उद्देश्यके विषय में शंका थी; परन्तु मेजर जोन्सने मेरी बातको यथार्थ मानते हुए किफायत के लिए मैं जितने परिवर्तन करना चाहूँ सो सब करने दिये और कभी ऐसी शंका नहीं की कि मैंने मनमें कुछ छिपा रखा है। एक और अफसर जिनसे शुरू में हमारा वास्ता पड़ा, जेलोंके इंस्पेक्टर जनरल थे। वे अकड़बाज और 'हाँ' या 'ना' से अधिक कहनेका कष्ट न उठानेवाले अफसर थे और लोगोंपर उनके कठोर होनेकी छाप पड़ती थी। खिंचे-तने रहनेका उनका अन्दाज तो निराला ही था। बेचारे कैदियोंको इससे बड़ी परेशानी होती थी। अधिकांश अफसरोंसे कल्पनाकी कमी के कारण, इरादा न होनेपर भी, अन्याय हो जाया करता है। वे दूसरा पक्ष देखते ही नहीं हैं। कैदियों की बात धीरजसे नहीं सुनते। उनसे यह आशा रखते हैं कि वे पूछते ही यथातथ्य उत्तर देंगे और जब वैसा उत्तर नहीं मिलता तो गलत फैसला कर बैठते हैं। इसलिए निरीक्षण अक्सर ढकोसला बन जाता है। परिणामस्वरूप लाभ कुपात्रों अर्थात् लुच्चे-लफंगों अथवा खुशामदियोंको ही होता है। सच्चे आदमीकी, कम बोलनेवाले सीधे-सादे कैदीकी तो कोई सुनता ही नहीं। और अधिकांश अफसर तो साफ स्वीकार करते हैं कि उनका कर्त्तव्य कैदियों को